श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी154. पुरीदास या कवि कर्णपूर
महाप्रभु जब संन्यास ग्रहण करके पुरी में विराजमान थे, तब बहुत से भक्तों की स्त्रियाँ भी अपने पतियों के साथ प्रभु दर्शनों की लालसा से पुरी जाया करती थीं। एक बार जब शिवानन्द सेन जी अपनी पत्नी के साथ भक्तों को लेकर पुरी पधारे तब श्रीमती सेन गर्भवती थीं। प्रभु ने आज्ञा दी कि अबके जो पुत्र हो, उसका नाम पुरी गोस्वामी के नाम पर रखना। प्रभु भक्त सेन महाशय ने ऐसा ही किया, जब उनके पुत्र हुआ तो उसका नाम रखा परमानन्ददास। परमानन्ददास जब बड़े हुए तब वे प्रभु दर्शनोें के लिये अपनी उत्कण्ठा प्रकट करने लगे। इनकी प्रभु परायण माता ने बाल्यकाल से ही इन्हेें गौर-चरित्र रटा दिये थे और सभी गौर भक्तों के नाम कण्ठस्थ करा दिये थे। इनके पिता प्रतिवर्ष हजारों रुपये अपने पास से खर्च करके भक्तों को पुरी ले जाया करते थे और मार्ग में उनकी सभी प्रकार की व्यवस्था स्वयं करते थे। इनका घर भर श्रीचैतन्य चरणों का सेवक था। इनके तीन पुत्र थे-बड़े चैतन्यदास, मँझले रामदास और सबसे छोटे ये परमानन्ददास, पुरीदास या कर्णपूर थे। परमानन्ददास बालक पन से ही होनहार, मेधावी प्रत्युत्पन्नमति और सरस हृदय के थे। इनके बहुत आग्रह पर वे इन्हें इनकी माता के सहित प्रभु के पास ले गये। वैसे तो प्रभु ने इन्हें देख लिया था, किन्तु सेन इन्हें एकान्त में प्रभु के पैरों में डालना चाहते थे। एक दिन जब महाप्रभु स्वरूप गोस्वामी आदि दो-चार अन्तरंग भक्तों के सहित एकान्त में बैठे श्रीकृष्ण कथा कह रहे थे तभी सेन महाशय अपने पुत्र परमानन्दपुरी को प्रभु के पास लेकर पहुँच गये। सेन ने इन्हें प्रभु के पैरों में लिटा दिया, ये प्रभु के पैरों में लेटे ही लेटे उनके अँगूठे को चूसने लगे, मानो वे प्रभुपादपद्मों की मधुरिमा को पी रहे हों। प्रभु इन्हें देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए। उन्होंने पूछा- ‘इसका नाम क्या रखा है?’ धीरे से महाशय ने कहा- ‘परमानन्ददास !’ प्रभु ने कहा- यह तो बड़ा लम्बा नाम हो गया, किसी से लिया भी कठिनता में जायेगा। इसलिये पुरीदास ठीक है। ‘यह कहकर वे बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए प्रेम से कहने लगे- ‘क्यों रे पुरीदास ! ठीक है न तेरा नाम? तू पुरीदास ही है न? बस, उस दिन से ये परमानन्ददास की जगह पुरीदास हो गये।’ |