श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी147. नीलाचल में सनातन जी
प्रभु के मुख से अपनी इतनी भारी प्रशंसा सुनकर सनातन जी रोते-रोते कहने लगे- 'प्रभो! मैंने ऐसा कौन-सा घोर अपराध किया है, मेरे किन जन्मों के अनन्त पाप आज आकर उदय हुए हैं, जो आप मुझे यह प्रशंसारूपी हलाहल विष पिला रहे हैं। जगदानन्द जी का आज भाग्य उदय हुआ। आज त्रिलोकी में इनसे बढ़कर भाग्यवान कौन होगा, जिनकी वात्सल्य स्नेह से पुत्र की भाँति प्रभु भर्त्सना कर रहे हैं। हाय ऐसी प्रेममयी भर्त्सना जिनके भाग्य में बदी है, वे महानुभाव धन्य हैं! गुरुजन जिनकी नित्य आलोचना करते रहते हैं, वे परम सौभाग्यशाली पुरुष हैं। हे करुणा के सागर प्रभो! इस अधम को किस अपराध से अपनेपन से पृथक करके आपने यह प्रशंसा रूपी सर्पिणी बलपूर्वक मेरे गले से लपेट दी। नाथ! मैं अब अधिक सहन न कर सकूँगा। 'सनातन जी की ऐसी कातर वाणी सुनकर प्रभु कुछ लज्जित-से हो गये और अत्यन्त ही प्रेम के स्वर में जगदानन्द जी की ओर देखकर कहने लगे- 'जगदानन्द ने मरे शरीर के स्नेह से और तुम्हारे आग्रह से ही ऐसी सम्मति दे दी होगी। मैंने अपने क्रोध के आवेश में ऐसी बातें इनके लिये कह दीं होगी। इसका कारण मेरा तुम्हारे ऊपर सहज स्नेह ही है। तुम इस वर्ष यहीं मेरे पास ही रहो, अगले वर्ष वृन्दावन जाना।' इतना कहकर प्रभु ने सनातन जी का फिर जोरों से आलिंगन किया। बस, फिर क्या था! न जाने वह खुजली और उसकी पीड़ा कहाँ चली गयी! उसी समय उनकी खाज अच्छी हो गयी और दो-चार दिन में उनके घाव अच्छे होकर उनका शरीर सुवर्ण के समान कान्ति वाला बन गया। रथ यात्रा के समय अद्वैताचार्य, नित्यानन्द आदि सभी गौड़ीय भक्त प्रतिवर्ष की भाँति अपने स्त्री-बच्चों के सहित पुरी में आये। प्रभु ने उन सबसे सनातन जी का परिचय कराया। सनातन जी प्रभु के परम कृपा पात्र इन सभी प्रेमी भक्तों का परिचय पाकर परम प्रसन्न हुए और उन्होंने सभी की चरणवन्दना की। सभी ने सनातन जी की श्रद्धा, दीनता और तितिक्षा की भूरि-भूरि प्रशंसा की। बरसात के चार महीने रहकर सभी भक्त देश के लिये लौट गये, किन्तु सनातन जी वहीं रह गये। वे दूसरे वर्ष प्रभु से विदा होकर और उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके पुरी से सीधे ही काशी होते हुए वृन्दावन पहुँचे। पुरी से चलते समय वे बलभद्र भट्टाचार्य से उस रास्ते के सभी स्थानों के नाम लिख ले गये थे, जिस रास्ते से प्रभु वृन्दावन गये थे, उन सभी स्थानों का दर्शन करते हुए और प्रभु की लीलाओं का स्मरण करते हुए उसी रास्ते से सनातन जी वृन्दावन पहुँचे। तब तक श्री रूप जी वृन्दावन में नहीं पहुचे थे। सनातन जी वहीं वृन्दावन वृक्षों के नीचे अपना समय बिताने लगे। कुछ दिनों के अनन्तर गौड़ देश से श्री रूप जी भी वृन्दावन पहुँच गये और दोनों भाई साथ ही श्री कृष्ण कथा कीर्तन करते हुए कालयापन करने लगे। |