श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी147. नीलाचल में सनातन जी
थोड़ी देर के अनन्तर प्रभु वहीं एक आसन पर बैठ गये। नीचे सिर किये हुए भूमि पर सनातन जी और हरिदास जी बैठ गये। प्रभु ने धीरे-धीरे रूप के आने का और उनके मिलने आदि का सभी वृत्तान्त सुना दिया। इसी प्रसंग में प्रभु ने श्री अनूप के परलोकगमन का समाचार भी सुना दिया। भाई के वैकुण्ठवास का समाचार सुनकर वीतराग महात्मा सनातन जी का भी हृदय उमड़ आया। वे अपने अश्रुओं के प्रवाह को रोक नहीं सके। प्रभु के कमल मुख पर भी विषण्णता के भाव प्रतीत होने लगे। प्रभु ने धीरे-धीरे भर्राई हुई आवाज से कहा- 'सनातन! तुम्हारे भाई ने सदगति पायी। वे परम भागवत पुरुषों के लोक में परमानन्द-सुख का अनुभव करते होंगे, उनसे बढ़कर सौभाग्यशाली हो ही कौन सकता है, जिन्होंने देहत्याग के पूर्व अपना घरबार त्याग दिया, व्रजमण्डल के सभी तीर्थो की यथाविधि यात्रा की और अन्तिम समय में अपने परम भागवत गुरु स्वरूप जयेष्ठ भ्राता श्री रूपजी की गोद में सिर रखकर भगवती भागीरथी के रम्य तट पर इस नश्वर शरीर को त्याग दिया और वैकुण्ठवासी बन गये, उन महाभाग के निमित्त तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। ऐसी मृत्यु के लिये तो इन्द्रादि देवता भी तरसते हैं।' रूंधे हुए कण्ठ से आंसू पोंछते हुए श्री सनातनजी ने कहा- 'प्रभो! मैं उन महाभाग के शरीर के लिये रुदन नहीं कर रहा हूँ। वे तो नित्य हैं, शाश्वत धाम में जाकर अपने इष्टदेव श्री सीता-राम जी के चरणाश्रित बन गये होंगे, किन्तु मुझे इसी बात का सोच हो रहा है कि अन्तिम समय मैं उनके दर्शन नहीं कर सका। मैं अभागा उनके निधन काल के दर्शनों से वंचित ही रहा।' प्रभु ने करूण स्वर में कहा-' रूप कहते थे, उनकी निष्ठा अलौकिक थी, अन्तिम समय में उन्होंने श्री सीताराम जी का ध्यान और स्मरण करते हुए प्रसन्नता पूर्वक ही शरीर त्याग किया।' |