श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी142. श्री सनातन को शास्त्रीय शिक्षा
हे तात! जिनके हृदय से विषयों का विकार एक दम दूर हो गया है, ऐसे परम पूजनीय भगवद्भक्तों की चरणरज से जब तक मनुष्य भलीभाँति सिर से पैर तक स्नान नहीं करता तब तक वेदवाक्यों से उत्पन्न हुई भी उसकी बुद्धि उसे प्रभु के पादपद्मों के समीप पहुँचाने में एक दम असमर्थ होती है। अर्थात बिना भगवद्भक्तों की चरण धूलि मस्तक पर धारण किये कोई भी पुरुष श्रीकृष्ण पादपद्मों के स्पर्श करने के निमित्त आगे नहीं बढ़ सकता। तत्त्वदर्शी ज्ञानियों की जब तक श्रद्धा के साथ, भक्ति के साथ प्रेम पूर्वक सेवा नहीं की जाती, उनके चरणों में जब तक स्वाभाविक स्नेह नहीं होता, तब तक वह भगवत-कथा श्रवण करने का भी अधिकारी नहीं होता। भगवान ने अर्जुन को उपदेश करते हुए गीता में स्वयं ही लिखा है- तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। अर्थात 'हे अर्जुन! तू दण्डवत-प्रणाम-सेवा और निष्कपट भाव से किये हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान। (विनीतभाव से पूछने पर) वे तत्त्वदर्शी महात्मागण तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।' उपदेश का वही अधिकारी है, जिसके हृदय में देवता, द्विज, गुरुजन और भगवत-भक्तों के प्रति श्रद्धा के भाव हैं। जो इनमें श्रद्धा के भाव नहीं रखता, वह परमार्थ की ओर अग्रसर ही नहीं हो सकता। फिर प्रभु कृपा का अधिकारी तो बन ही कैसे सकता है? सनातन! बहुत बातों में क्या रखा है, मैं तुझे सारातिसार बताता हूँ। प्राणिमात्र का परम पुरुषार्थ श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति करना ही है। परम अराध्य वे ही श्री नन्दनन्दन वृन्दावनचन्द्र श्रीकृष्णचन्द्र जी हैं। अपने सभी पुरुषार्थों का आश्रय छोड़कर अनन्य भाव से व्रजांगनाओं की भाँति संसारी सम्बन्धों से मुख मोड़कर पतिभाव से उनकी आराधना करना यही उपासना की उत्तम-से-उत्तम प्रणाली है और पठनीय शास्त्रों में श्रीमद्भागवत ही सर्वोपरि शास्त्र है। क्योकि इसे भगवान व्यासदेव ने सभी पुराणों के अनन्तर जिस प्रकार दही को मथकर उसमें से सारभूत मक्खन को निकाल लेते हैं, उसी प्रकार सर्वशास्त्रों को मथकर उनका सार निकाला है। बस, यही कल्याण का मार्ग है। इसे तुम मेरे मत का सार समझो। इससे अधिक कोई किसी बात का आग्रह करे तो उसे तुम अन्यथा समझना।[1] मेरे इस ज्ञान को हृदय में धारण करो। साधु-महात्मा, संत तथा भगवद्भक्तों के चरणों में दृढ़ अनुराग रखो। वे कैसे भी हों उनकी निन्दा कभी मत करो। सबको ईश्वर-बुद्धि से नम्र होकर प्रणाम करो। तुम्हारा कल्याण होगा, मैं तुम्हें हृदय से आशीर्वाद देता हूँ। मेरे इस अमल-विमल शास्त्र सम्मत ज्ञान का तुम विस्तार के साथ भक्ति के ग्रन्थों में वर्णन करना। मंगलमय भगवान तुम्हारा मंगल करेंगे!' इतना कहकर महाप्रभु चुप हो गये। महाप्रभु के चुप हो जाने पर सनातन जी ने भक्तिभाव के सहित महाप्रभु के चरणों में प्रणाम किया और महाप्रभु ने उनके शरीर पर हाथ फेरते हुए उन्हें आशीर्वाद दिया। इस प्रकार दो महीनों तक महाप्रभु के समीप काशी में रहकर सनातन भाँति-भाँति के शास्त्रीय प्रश्न पूछते रहे और प्रभु उन्हें प्रेम पूर्वक सभी गुप्त तत्त्व समझाते रहें। इन दो महीनों में ही सनातन जी ने प्रभु से बहुत-सी भक्तिमार्ग की गूढ़ता तिगूढ़ बातें समझ लीं, जिनका विस्तार के साथ उन्होंने अपने अनेकों ग्रन्थों में वर्णन किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद्धाम वृन्दावनं। रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता।। श्रीमद्भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थों महान्। श्रीचैतन्यमहाप्रभुोर्मतमिदं तत्राग्रहो नापरः।।