हे देव! तुम्हारे चरणों में हमारा नमस्कार है। वस्तुतः भगवान श्री रामचन्द्र जी के सम्बन्ध में यह कथन कवि विनोद ही है। इधर महाप्रभु अपने भक्तों से विदा होकर गंगा जी के किनारे-किनारे श्री वाराणसी क्षेण में पहुँचे। नगर के बाहर ही उन्हें चन्द्रशेखर जी मिल गये। प्रभु को देखते ही उन्होंने भूमि पर लोटकर प्रभु को प्रणाम किया। महाप्रभु ने उनका आलिंगन करते हुए प्रेम पूर्वक पूछा-'चन्द्रशेखर! तुम यहाँ कहां? तुम्हें कैसे पता चला कि मैं आज आऊंगा?' चन्द्रशेखर जी ने कहा-'प्रभो! कल रात्रि में मैंने स्वप्न देखा था कि आप आज काशी जी में आ गये हैं। इसीलिये खोज में आया था। यहाँ आते ही सहसा श्री चरणों के दर्शन हो गये। अब मेरी कुटिया को अपनी चरण-रजसे कृतार्थ कीजिये।' वैद्य चन्द्रशेखर के आग्रह से प्रभु उनके घर गये। समाचार पाते ही तपन मिश्र, उनके पुत्र रघुनाथ, वह मरहठा ब्राह्मण तथा और भी बहुत-से भक्त प्रभु के दर्शनों के लिये आ गये। तपन मिश्र ने दोनों हाथों की अंजलि बांधकर प्रभु से प्रार्थना की कि 'प्रभु जब तक काशी में निवास करे तब तक मेरे ही घर भिक्षा करें। प्रभु ने मिश्र जी की विनती स्वीकार कर ली और आप चन्द्रशेखर वैद्य के घर पर ही रहने लगे। रहते यहाँ थे और भिक्षा करने तपन मिश्र के यहाँ चले जाते थे। इस प्रकार महाप्रभु लगभग दो मास तक काशी जी में ठहरे। यहीं श्री रूप के भाई सनातन जी प्रभु से आकर मिले, जिनका वृत्तान्त अगले अध्याय में पाठकों को मिलेगा।