श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी136. श्री रूप को प्रयाग में महाप्रभु के दर्शन
इधर महाभाग सनातन की दशा रूप से भी अधिक विचित्र हो गयी। वे लौटकर राजधानी में तो गये; किन्तु राजकाज करने में एकदम असमर्थ-से हो गये। सब काम मन से ही होते हैं, मन तो एक ही है, उससे चाहे इस लोक का काम करा लो या परमार्थ के मार्ग का शोधन करा लो। एक मन दो काम कदापि नहीं कर सकता। सनातन जानते थे कि बादशाह मुझे प्राणों से भी अधिक प्यार करता है, यदि मैं एकदम राज मैं एकदम राजकाज से त्यागपत्र दे दूँ, तो बादशाह उसे कदापि स्वीकार न करेगा और फिर आजकल तो उसका उड़ीसा-देश के महाराज से युद्ध छिड़ा हुआ है। वह मेरे ऊपर सबसे आधिक विश्वास रखता है, ऐसे समय में वह मुझे कभी न छोड़ेगा। यह सब सोचकर उन्होंने बादशाह को कहला भेजा- 'मै बीमार हूँ, राजकाज करने में एकदम असमर्थ हूँ। कुछ समय का अवकाश चाहता हूँ।' बादशाह को इनकी बीमारी की बड़ी चिन्ता हुई। उसने अपने दरबार के प्रधान हकीम को इनके इलाज के लिये भेजा। वैद्य ने जाकर इनकी नाड़ी देखी किन्तु वह अनाड़ी इनकी नाड़ी को क्या पहचान सकता ? इनकी वेदना को तो कोई परमार्थी वैद्य ही जान सकता था, इस लोक के वैद्यों की पुस्तकों में न तो इस रोग का निदान है और न चिकित्सा। राजवैद्य ने इनसे सम्पूर्ण शरीर की परीक्षा करके कहा- 'महाशय, मुझे आपके शरीर में कोई रोग दीखता नहीं।' इस बात को सुनकर सनातन जी मुसकरा दिये, उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। दरबारी हकीम ने जाकर बादशाह से कह दिया- 'श्रीमन! मुझे तो इनके शरीर में कोई रोग दीखा नहीं। वे तो भलेचंगे बैठे हुए पण्डितों से भागवत की कथा सुन रहे हैं। मैंने तो आज तक ऐसा रोगी कोई भी नहीं देखा।' बादशाह इतना सुनते ही आगबबूला हो गया। वह उसी समय उठकर स्वयं सनातन जी वासस्थान पर पहुँचा। सचमुच सनातन जी बैठे हुए कथा सुन रहे थे। दस-बीस ब्राह्मण पण्डित उनके इधर-उधर बैठे हुए थे।
कुछ वैसे ही अन्यमनस्क-भाव से धीरे-धीरे सनातन जी ने कहा- 'वैसे ही श्रीमन! कुछ तबीयत खराब-सी है। काम करने में बिलकुल जी ही नहीं लगता।' बादशाह ने कहा- 'कुछ भी तो बात होगी, मुझे ठीक-ठीक बताओ क्या रोग है क्या बीमारी है और काम में चित्त न लगने का कारण क्या है ?' उसी तरह से उपेक्षा के भाव से सनातन जी ने कहा- 'नहीं, कोई खास बात नहीं है। तबीयत ठीक नहीं हैं।' अब बादशाह अपने रोब को नहीं रोक सका, उसने कड़ककर कहा- 'राजकाज से तुम्हारी यह लापरवाही ठीक नहीं तुम जानते हो मैं तुम दोनों भाइयों पर कितना अधिक विश्वास रखता हूँ, किन्तु देखता हूँ, तुम दोनों ठीक समय पर ही मुझे धोखा देना चाहते हो। इसे विश्वास घात न कहूँ तो और क्या कहूँ। तुम्हारा भाई यहाँ से भागकर फतेहाबाद चला गया। तुम बीमार न होने पर भी बीमारी का बहाना बनाये घरमें बैठे हो। इस धोखेबाजी के अंदर कौन-सी बात छिपी है, मुझे सच-सच बताओ। तुम्हारी लापरवाही के कारण मेरा सभी राजकाज चौपट हो गया है। तुम्हें राजकाल करना होगा और कभी चलकर अपना काम संभालना होगा।' |