श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी16. अद्वैताचार्य और उनकी पाठशाला
एक बार की बात है कि राज्य की ओर से काली देवी की विशेष पूजा के उपलक्ष्य में एक बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। इस समारोह में बालक कमलाक्ष भी गये। उन्होंने देखा काली माई की भेंट के लिये सैकड़ों बकरे तथा भैंसों का बलिदान किया गया है। दूर-दूर से काली माई के कीर्तन के लिये सुप्रसिद्ध कीर्तनकार बुलाये गये हैं। कमलाक्ष भी काली-मण्डप में बिना कालीमाई को प्रणाम किये जा बैठे। उनके इस व्यवहार से महाराज दिव्यसिंह को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपनी राजसभा के एक सुप्रतिष्ठित पण्डित के पुत्र के इस अधार्मिक व्यवहार से वे क्षुब्ध-से हो गये और कहने लगे- 'कमलाक्ष! तुम देवी को बिना ही प्रणाम किये कैसे बैठ गये?’ इस पर बालक कमलाक्ष ने कुछ रोष के साथ कड़ककर कहा- 'देवी तो जगज्जननी है। सभी प्राणी उसकी सन्तान हैं। जो माता अपने पुत्रों को खाती है, वह माता नहीं राक्षसी है। पुत्र चाहे कैसा भी कुपुत्र हो किन्तु माता कुमाता कभी नहीं होती 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।’ एक सच्चिदानन्दभगवान ही पूजनीय और वन्दनीय हैं। उनके प्रणाम करने से ही सबको प्रणाम हो जाता हे। आप लोग देवी-देवताओं के नाम से अपनी वासनाओं को पूर्ण करते हैं।’ बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर राजा दिव्य सिंह अवाक् रहे गये। कमलाक्ष के पिता कुबेर तर्कपंचानन भी वहाँ बैठे थे, उन्होंने महाराज का पक्ष लेकर कहा- ’देवी-देवता सभी उस नारायण के ही रूप हैं। इसलिये देवी की प्रतिमा के सम्मुख प्रणाम न करना महापाप है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये।’ पिता की बात सुनकर कमलाक्ष निर्भीक होकर कहने लगे- 'एक जनार्दन भगवान ही की पूजा से सबकी पूजा हो सकती है, जहाँ प्राणियों की हिंसा होती हो, वह न तो देवस्थान है और न वह देवपूजा ही है।’ छोटे बालक के मुख से ऐसी बातें सुनकर सभी दर्शक आश्चर्य चकित हो गये। महाराज ने इनकी बुद्धि की बड़ी प्रशंसा की। इस प्रकार अल्पावस्था में ही इन्होंने अपनी निर्भीकता, दयालुता और वैष्णव-परायणता का परिचय दिया। धीरे-धीरे इनकी अवस्था 12-13 वर्ष की हुई। पिता के समीप पढ़ने से इनकी तृप्ति नहीं हुई। उन दिनों इनके पिता लाउड़ में ही रहते थे, ये विद्याध्ययन के निमित्त शान्तिपुर चले गये, समाचार मिलने पर इनके माता-पिता भी इनके समीप शान्तिपुर ही आ गये। यहाँ पर रहकर इन्होंने वेद-वेदांग तथा नव्य-न्याय की विशेष शिक्षा प्राप्त की। थोड़े ही दिनों में ये एक नामी पण्डित गिने जाने लगे। कालान्तर में इनके माता-पिता परलोकवासी हुए। मरते समय इनके पिता आदेश दे गये थे कि- ’हमारा गया जी में जाकर श्राद्ध अवश्य करना।’ |