श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी133. पुरी में प्रत्यागमन और वृन्दावन की पुनः यात्रा
वर्षा बीत जाने पर शरद के प्रारम्भ में प्रभु भक्तों से अनुमति लेकर वृन्दावन जाने के लिये उद्यत हुए। प्रभु एकाकी जा रहे हैं और साथ में किसी दूसरे को ले ही नहीं जाना चाहते तब गद्गद कण्ठ से स्वरूप गोस्वामी ने कहा- 'प्रभो! मेरी एक प्रार्थना है। उसे आप अवश्य ही स्वीकार कर लीजिये। आप एकाकी ही वृन्दावन जा रहे हैं, यह हमारे लिये असह्य है, अतः किसी और को साथ ले जाना नहीं चाहते तो इस बलभद्र भट्टाचार्यको तो आप अवश्य ही साथ ले जायँ। यह कुलीन ब्राह्मण है, सेवा करना भलीभाँति जानता है, प्रभु के पादपद्मों में इसका दृढ़ अनुराग है, इसकी स्वयं भी व्रजमण्डल के सभी तीर्थों की यात्रा करने की इच्छा है, यह आपकी भिक्षा आदि बना दिया करेगा, इससे आपको भी असुविधा न रहेगी और हम लोगों को भी संतोष रहा करेगा।’ स्वरूप की बात सुनकर और सभी भक्तों की ऐसी ही इच्छा समझकर भक्तवत्सल प्रभु बोले- ‘आप लोगों की इच्छा के विरुद्ध कोई काम करने की मेरी शक्ति नहीं है, आप लोगों की जिसमें प्रसन्नता होगी और आप लोग जैसा कहेंगे वैसा ही मुझे करना पड़ेगा। अच्छा, आप लोगों के अनुरोध से मैं बलभद्र को साथ ले जाऊँगा।’ प्रभु के इस निश्चय से सभी को प्रसन्नता हुई और सभी प्रभु के शरीर की ओर से कुछ-कुछ निश्चिन्त-से हो गये। किन्तु किसी को इस बात का पता नहीं था कि प्रभु कब वृन्दावन जायेंगे। शाम के समय प्रभु एकाकी भगवान के दर्शन करने गये और उनसे रात्रि में ही आज्ञा लेकर दूसरे दिन अँधेरे में ही बलभद्र भटटाचार्य को साथ लेकर वृन्दावन की ओर चल दिये। प्रातःकाल जब भक्तों ने देखा कि प्रभु नहीं हैं, तब सभी समझ गये कि प्रभु वृन्दावन को चले गये। इधर महाप्रभु राजपथ को छोड़कर और कटक से बचकर झाड़ीखण्ड में होकर सीधे उपपथ के द्वारा वृन्दावन की ओर चले। रास्ते में बहुत दूर तक गाँव नहीं पड़ते थे, उन दिनों बलभद्र वन्य शाक-मूल-फलों को ही बनाकर प्रभु को भिक्षा करा देते। कभी-कभी बलभद्र गाँवों में से तीन-तीन, चार-चार दिन के लिए इकठ्ठा सामान माँग लाते और जहाँ सामान न मिलता, वहाँ उसी में से प्रभु को बनाकर भिक्षा करा देते थे। वे बड़ी सावधानी से प्रभु की सेवा करते थे। महाप्रभु इनकी सेवा से सदा सन्तुष्ट रहते और बार-बार इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते। प्रभु की माया कौन जाने, कहाँ तो एक हरीत की के टुकड़े को दूसरे दिन के लिये रखने से असन्तुष्ट हो गये। और यहाँ बलभद्र के अन्न- संग्रह करने पर भी उससे उल्टे प्रसन्न ही हुए। तभी तो कहा है- लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमीश्वरः। इन महापुरुषों के चित्त कुछ संसारी लोगों से विलक्षण ही होते हैं, उनके मनोगत भावों को जानने में कौन समर्थ हो सकता है? |