श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी131. श्री रूप और सनातन
जब सभी लोग सो गये और सम्पूर्ण नगर में सन्नाटा छा गया तब अर्धरात्रि के समय ये अपने प्यारे के संग-सुख की इच्छा से साधारण वेश में चले। उस समय अत्यन्त ही दीन होकर और दाँतों में तृण दबाकर ये लोग प्रभु के निवासस्थान के समीप पहुँचे। उस समय सभी भक्त मार्ग के परिश्रम से थककर घोर निद्रा में पड़े सो रहे थे। इन्होंने सब से पहले नित्यानन्द जी तथा हरिदास जी को जगाया और अपना परिचय दिया। इन दोनों भाइयों के आने का संवाद दिया। प्रभु ने उसी समय दोनों को अपने समीप बुला ने की आज्ञा दी। प्रभु की आज्ञा पाकर पुलकित शरीर से अत्यन्त दीनता के साथ ये लोग प्रभु के समीप पहुँचे और जाते ही व्याकुलता के साथ प्रभु के पैरों में गिरकर जोरों से रुदन कर ने लगे। प्रभु अपने कोमल करों से बार-बार इन्हें उठाते थे, किन्तु वे प्रेम के कारण प्रभु के पादपद्यों को छोड़ना ही नहीं चाहते थे। अत्यन्त ही करुणा के स्वर में ये प्रभु से अपने उद्धार की प्रार्थना करने लगे। प्रभु ने इन्हें आश्वासन देते हुए कहा- 'तुम लोगों के रुदन से मेरा हृदय फटता है, तुम दोनों ही परम भागवत हो और मेरे जन्म-जन्मान्तरों के सुहृद् हो। मैं तुम्हारे दर्शनों के लिये व्याकुल था। राम केलि में आने का मेरा और दूसरा कोई अभिप्राय नहीं था, यहाँ तो मैं केवल तुम दोनों भाइयों के दर्शनों के ही लिये आया हूँ। आज से तुम्हारा नूतन जन्म हुआ। अब इन मुसलमानी नामों को त्याग दो, आज से तुम्हारे नाम रूप और सनातन हुए।' प्रभु के इन प्रेमपूर्ण वचनों से दोनों भाइयों को परम सन्तोष हुआ और वे भाँति-भाँति से प्रभु की स्तुति कर ने लगे। अन्त में सनातन में प्रभु से कहा- 'प्रभो! इस युद्ध काल में और इतनी भीड़-भाड़ के साथ वृन्दावन-यात्रा करना ठीक नहीं है। वृन्दावन तो अकेल ही जाना चाहिये। रास्ते में इन सब का प्रबन्ध करना, देख-रेख रखना और सब की चिन्ता का भार उठाना ठीक नहीं है। इस समय आप लौट जायँ और फिर अकेले कभी वृन्दावन की यात्रा करें।' प्रभु ने सनातन के सत्परामर्श को स्वीकार कर लिया और प्रातः काल उन दोनों भाइयों को प्रेमपूर्वक आलिंगन करके विदा किया और आप सभी भक्तों के साथ कन्हाई की नाटशाला होते हुए फिर शान्तिपुर में अद्वैताचार्य के घर आकर ठहर गये। |