श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी124. नित्यानन्द जी का गृहस्थाश्रम में प्रवेश
इस प्रकार दो विवाह करके नित्यानन्द जी भगवती भागीरथी के किनारे खड़दा नामक ग्राम में रहने लगे। भक्तवृन्द इनका बहुत अधिक मान करते थे। यहीं वसुधा के गर्भ से परम तेजस्वी वैष्णव-सम्प्रदाय के प्रवर्तक श्रीवीरचन्द्र जी का जन्म हुआ। उन्होंने नित्यानन्द जी के तिरोभाव के अनन्तर अपना एक अलग ही वैष्णव-सम्प्रदाय बनाया। इनके पश्चात् इनकी पत्नी जाह्नवी देवी भी भक्ति का खूब प्रचार करती रहीं। इस प्रकार नित्यानन्द जी द्वारा गुरुकुल की स्थापना हुई जो किसी-न-किसी रूप में अद्यावधि विद्यमान हैं। नित्यानन्द जी महाप्रभु के अनन्य उपासक थे, उन्होंने उनकी आज्ञा मानकर लोक-निन्दा सहकर भी विवाह किया और स्त्री-बच्चों में रहकर लोगों को दिखा दिया कि इस प्रकार निर्लिप्त-भाव से रहकर गृहस्थी में भगवद-भजन किया जाता है। वे गृहस्थ होने पर सदा उदासीन ही बने रहते थे। उन्होंने प्रवृत्ति-मार्ग में भी निवृत्ति-मार्ग का आचरण करना बता दिया, निवृत्ति-प्रवृत्ति ये ही दो मार्ग हैं। निवृत्ति-मार्ग का तो कोई लाखों में से एक-आध आचरण कर सकता है। इसीलिये तो भगवान ने 'कमयोगो विशिष्यते' कहकर निष्काम मार्ग की स्तुति की है। प्रवृत्ति-मार्ग दो प्रकार का होता है- एक सकाम, दूसरा निष्काम। आजकल इन्द्रिय-भोगों को भोगते हुए जो गृहस्थ केवल पेट-पालन को ही मुख्य समझते हैं, उनका धर्म न निष्काम है और न सकाम। यह तो पशु-धर्म है; परस्पर के संसर्ग से स्वतः ही सन्तानें बढ़ती रहती हैं। सकाम कर्म वे हैं जो वेदोक्त रीति से स्वर्गादि सुखों की इच्छा से किये जायँ। निष्काम कर्म वे हैं, जो भगवत-प्रीति के ही लिये बिना किसी सांसारिक इच्छा के कर्तव्य समझकर किये जायँ, प्रभु-प्रसन्नता ही जिनका एकमात्र लक्ष्य हो। निष्काम कर्म करने वाले कुल दो प्रकार के होते हैं- एक तो वीर्यजन्य कुल और दूसर शब्दजन्य कुल। जो वंशपरम्परा से उत्पन्न होते हैं, वे वीर्यजन्य कुल कहलाते हैं और जो शिष्य परम्परा से शाखा चलती है, वह शब्दजन्य कुल कहलाते है। आजकल की महन्ती उसी कुलका विकृत और गिरा हुआ स्वरूप है। नित्यानन्द जी द्वारा इन दोनों ही कुलों की सृष्टि हुई। उनके वंशज भी गोस्वामी और वैष्णवों के गुरु हुए और उनकी शिष्य-परम्परा भी अद्यावधि विद्यमान है। |