श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी121. भक्तों की विदाई
तब बादशाह ने पूछा- ‘आपको यकायक यह हो क्या गया?’ इन्होंने अपने भाव को छिपाते हुए कहा- ‘मुझे मृगी का रोग है, सहसा उसका दौरा हो उठा था।’ बादशाह सब समझ तो गया, किन्तु उसने कुछ कहा नहीं। उसी दिन से वह इनका बहुत अधिक आदर करने लगा। प्रभु के मुख से अपनी ऐसी प्रशंसा सुनकर मुकुन्द कुछ लज्जित से हो गये। तब प्रभु ने उनसे कहा- ‘आप भले ही खूब रुपये पैदा करें, किन्तु रघुनन्दन को सदा कृष्ण-भजन में ही लगे रहने दें। यह तो जन्म से ही भक्त हैं। घोर शीतकाल में यह पुष्करिणी में स्नान करके कदम्ब के फूलों से भगवान की पूजा किया करते थे। यह आपके सम्पूर्ण कुल को तार देंगे।’ इसके अनन्तर महाप्रभु ने मुरारी गुप्त को रामोपासना ही करते रहने का उपदेश किया और सभी भक्तों को उनकी दृढ़ रामनिष्ठा की कहानी कहकर सुनायी। फिर सार्वभौम तथा विद्यावाचस्पति दोनों को कृष्ण-भक्ति करने के लिये कहा। फिर महाप्रभु वासुदेव दत्त की ओर देखकर कहने लगे- ‘यदि ऐसे भक्त दस बीस भी हों तो संसार का उद्धार हो जाय।’ प्रभु के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर वासुदेव दत्त ने लज्जित होकर अत्यन्त ही दीनभाव से कहा- ‘प्रभो ! मैं आपके चरणों में एक प्रार्थना करना चाहता हूँ। आप तो दयालु हैं। इन जीवों को दु:खी देखकर मेरा हृदय फट जाता है। प्रभो ! मेरी यही प्रार्थना है कि सम्पूर्ण जीवों का पाप मेरे शरीर में आ जाय और सभी के बदले का दु:ख मैं अकेला ही भोग लूँ। यही मेरी हार्दिक इच्छा है, ऐसा ही आप आशीर्वाद दें, आप सब कुछ करने में समर्थ हैं।’ प्रभु उनके इस भूतदया के भाव से अत्यन्त ही सन्तुष्ट हुए। सभी भक्त चलने के लिये उद्यत हुए। मुकुन्द प्रभु के समीप ही रहना चाहते थे इसलिये प्रभु ने उन्हें यमेश्वर में टोटा गोपीनाथ की सेवा करने की आज्ञा प्रदान की। वे वहीं क्षेत्रसंन्यास लेकर सेवा पूजा और कृष्ण कीर्तन करने लगे। भक्त महाप्रभु को छोड़ना ही नहीं चाहते थे। उनके दिल धड़क रहे थे और वे विवश होकर जाने के लिये तैयार हो रहे थे। महाप्रभु के नेत्रो में जल भरा हुआ था। भक्तगण उच्चस्वर में रुदन कर रहे थे। महाप्रभु सबका अलग अलग आलिंगन करते थे। भक्त उनके पैरों में लोट-लोटकर अपने विरह दु:ख को कुछ कम करते थे। जैसे तैसे अत्यन्त ही दु:ख के साथ भक्तवृन्द गौड़देश के लिये चले। महाप्रभु दूर तक उन्हें पहुँचाने गये। भक्तों को विदा करके प्रभु लौटकर अपने स्थान पर आ गये और पुरी, भारती जगदानन्द, स्वरूपदामोदर, दामोदर पण्डित, काशीश्वर और गोविन्द के साथ आप सुखपूर्वक निवास करने लगे। कुछ गौड़ीय भक्त थोड़े दिनों के लिये प्रभु के पास और ठहर गये थे। उन्हें नित्यानन्द जी के साथ प्रभु ने भगवन्नाम के प्रचारार्थ गौड़-देश में पीछे से भेजा था। |