श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी121. भक्तों की विदाई
फिर आपने उदारमना परमभागवत श्रीशिवानन्द सेनजी से बड़े ही स्नेह के स्वर में कहा- ‘सेन महाशय ! आप गृहस्थ होकर भी गृह की कुछ परवा नहीं करते, यह ठीक नहीं। साधु सेवा करनी चाहिये, किन्तु थोड़ा बहुत घर का भी ध्यान रखा करें। जो आता है उसे ही आप उसी समय उड़ा देते हैं। गृहस्थी के लिये थोड़ा धन संचय करने की भी आवश्यकता है। इसके अनन्तर कुलीन ग्रामवासी रामानन्द तथा सत्यराज खाँको फिर स्मरण दिलाते हुए कहा- ‘प्रतिवर्ष भगवान की सुन्दर सी मजबूत पट्टीडोरी बनाकर लाया करें। प्रतिवर्ष रथयात्रा में भक्तों के सहित सम्मिलित होनी चाहिये।’ फिर आप मालाघर वसु (गुनराज खाँ) की ओर देखकर कहने लगे- ‘वसु महाशय की प्रतिभा का तो कहना ही क्या? बड़े ही सुन्दर कवि हैं। मैंने इनका रचित ‘श्रीकृष्णविजय’ काव्य सुना। वैसे तो सम्पूर्ण काव्य सुन्दर है, किन्तु उसका एक पद तो बड़ा ही सुन्दर लगा। ‘नन्दनन्दन कृष्ण मोर प्राणनाथ!’ अहा, कितना सुन्दर पद है?’ पास बैठे हुए स्वरूपदामोदर से पूछने लगे- ‘यह पूरा पद कैसे है?’ स्वरुपदामोदर धीरे धीरे लय के साथ कहने लगे- ‘एकभावे वन्द हरि जोड़ करि हात। नन्दनन्दन कृष्ण मोर प्राणनाथ।।’ कुछ देर ठहरकर प्रभु कहने लगे- ‘कुलीनग्राम की तो कुछ बात ही दूसरी है, वहाँ के तो सभी पुरुष भक्त हैं। सभी लोगों के सुख से हरिनाम-संकीर्तन की सुमधुर ध्वनि सुनायी देती है, इसलिये उस गाँव का तो कुत्ता भी मेरे लिये वन्दनीय है!’ प्रभु के ऐसा कहने पर कुलीन ग्रामवासी रामानन्द और सत्यराज खाँ आदि वैष्णवों ने लज्जा के कारण सिर नीचा किये हुए ही धीरे धीरे पूछा- ‘प्रभो ! हम गृहस्थों का भी किसी प्रकार उद्धार हो सकता है? हमारा क्या कर्तव्य है, इसे हम जानना चाहते हैं?’ |