श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी120. पुरी में भक्तों के साथ आनन्द विहार
रथ-यात्रा के पश्चात जो पंचमी आती है, उसे ‘हेरापंचमी’ कहते हैं। उस दिन महालक्ष्मी भगवान को हेरती अर्थात खोजती हैं। इसीलिये उसका नाम हेरापंचमी है। जगन्नाथ जी में हेरापंचमी का उत्सव भी खूब धूम धाम से होता है। जिस प्रकार जगन्नाथ जी के मन्दिर को नीलाचल कहते हैं। उसी प्रकार गुण्टिचा उद्यान के मन्दिर को सुन्दराचल कहते हैं। भगवान तो उस दिन सुन्दराचल में ही विराजते हैं, किन्तु हेरापंचमी का उत्सव यहाँ नीलाचल में ही होता है। अबके महाराज ने अपने कुल पुरोहित श्रीकाशी मिश्र को हेरापंचमी उत्सव को धूम धाम के साथ करने की आज्ञा दी। महाराज के आज्ञानुसार भगवान का मन्दिर विविध भाँति से सजाया गया। महाराज ने स्वयं अपने घर का सामान उत्सव की सजावट के लिये दिया और महाप्रभु के दर्शन के लिये विशेष रीति से प्रबन्ध किया गया। प्रात:काल सभी भक्तों को साथ लेकर महाप्रभु हेरापंचमी के लक्ष्मी-विजयोत्सव को देखने के लिये सुन्दराचल से नीलाचल पधारे। महाराज ने उनके बैठने का पहले से ही सुन्दर प्रबन्ध कर रखा था। महाप्रभु अपने सभी भक्तों के सहित यहाँ बैठ गये। इतने में ही एक बहुत बढ़िया सुन्दर डोला में बैठकर भगवान को खोजती हुई लक्ष्मी जी अपनी सभी दासियों के सहित पधारीं। उस समय लक्ष्मी जी की शोभा अपूर्व ही थी। उनके सम्पूर्ण अंगों में भाँति-भाँति क बहुमुल्य अलंकार शोभायमान थे, आगे आगे देव दासियाँ नृत्य करती आ रही थीं और अनेक प्रकार के वाद्य उनके आगे बज रहे थे। आते ही लक्ष्मी जी की दासियों ने जगन्नाथ जी के मुख्य मुख्य सेवकों को बांध लिया और बाँधकर उन्हें लक्ष्मी जी के सम्मुख उपस्थित किया। दासियाँ उन सेवकों को मारती भी जाती थीं। महाप्रभु ने स्वरूपदामोदर से पूछा- ‘स्वरूप ! यह क्या बात है, लक्ष्मी जी इतनी कुपित क्यों हैं?’ स्वरूपदामोदर ने कहा- ‘प्रभो ! क्रोध की बात है। अपने प्राणप्यारे से पृथक होने पर किसे अपार दु:ख न होगा।’ महाप्रभु ने पूछा-‘मैं यह जानना चाहता हूँ कि भगवान अकेले ही चुपके से चोर की भाँति वृन्दावन क्यों चले गये, लक्ष्मी जी को वे साथ क्यों नहीं ले गये?’ स्वरूपदामोदर ने कहा- ‘प्रभो ! रासलीला में व्रज की गोपिकाओं का ही अधिकार है, लक्ष्मी जी के भाग्य में यह सौभाग्य सुख नहीं है।’ |