श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी117. गुण्टिचा (उद्यान मन्दिर) मार्जन
प्रभु ने कहा- ‘मिश्र जी ! आप विद्वान भक्त और जगन्नाथ जी के भक्त होकर ऐसी बात कहते हैं? भगवान की सेवा में कोई भी काम छोटा नहीं है। इन हाथों से भगवान की तुच्छ-से-तुच्छ सेवा का भी सौभाग्य प्राप्त हो सके तो हम अपने जीवन को धन्य समझेंगे। भगवान की सेवा में छोटे-बड़े का ध्यान न आना चाहिये। जो भी काम मिल जाय, उसे ही श्रद्धा-भक्ति के साथ करना चाहिये। हमारी ऐसी इच्छा है, आप जल्दी से इसका प्रबन्ध करें।’ महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके काशी मिश्र ने उद्यान के मार्जन के निमित्त झाडू, टोकरी तथा और भी आवश्यकीय वस्तुएँ का प्रबन्ध कर दिया। अब महाप्रभु अपने सभी भक्तों के सहित गुण्टिचा मार्जन के लिये चले। सार्वभौम भट्टाचार्य, राय रामानन्द तथा वाणीनाथ जैसे प्रमुख-प्रमुख गण्यमान्य पुरुष भी प्रभु के साथ हाथ में झाडू तथा खुरापियों को लेकर चले। सबसे पहले तो महाप्रभु ने वहाँ इधर उधर जमी हुई घास को छिलवाया। फिर आपने सभी भक्तों से कहा- ‘सभी एक-एक झाड़ू ले लीजिये और झाड़कर अपना अपना कूड़ा अलग एकत्रित करते जाइये। कूड़े को देखकर ही सबको पुरस्कार अथवा तिरस्कार मिलेगा।’ बस, इतना सुनते ही सभी भक्त उद्यान साफ करने में जुट गये। सभी एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे, सभी चाहते थे कि मेरा ही नम्बर सर्वश्रेष्ठ रहे। सभी भक्तों के शरीरों से पसीना बह रहा था। महाप्रभु तो यन्त्र की भाँति काम में लगे हुए थे। उनके गौरवर्ण के अरुण कपोल गर्मी और परिश्रम के कारण और भी अधिक अरुण हो गये थे। उनमें से स्वेद-बिन्दु निकल निकलकर प्रभु के सम्पूर्ण शरीर को भिगो रहे थे। |