श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी114. गौर भक्तों का पुरी में अपूर्व सम्मिलन
महाराज प्रतापरुद्र जी ने आचार्य गोपीनाथ जी से भक्तों का परिचय कराने के लिये कहा। आचार्य सभी भक्तों का परिचय कराने लगे। वे अंगुली के संकेत से बताने लगे- ‘जिन्होंने इन तेजस्वी वृद्ध भक्त को माला पहनायी है, ये महाप्रभु के दूसरे स्वरूप श्रीस्वरूपदामोदर गोस्वामी हैं, इनके साथ यह महाप्रभु के सेवक गोविन्द हैं। ये आगे आगे जो उत्साह के साथ नृत्य कर रहे हैं, ये परम भागवत अद्वैताचार्य हैं। इनके पीछे जो ये चार गौरवर्ण के सुन्दर से पण्डित हैं, वे श्रीवास, वक्रेश्वर, विद्यानिधि और गदाधर हैं। ये चन्द्रशेखर आचार्य हैं। महाप्रभु के पूर्वाश्रम के ये मौसा होते हैं। महाप्रभु के चरणों में इनका दृढ़ अनुराग है। ये शिवानन्द, वासुदेवदत्त, राघव, नन्दन, श्रीमान और श्रीकान्तपण्डित हैं।’ इस प्रकार एक एक करके आचार्य सभी भक्तों का परिचय कराने लगे। भक्तों का परिचय पाकर महाराज को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसी समय उन्होंने देखा, गौड़ीय भक्त श्रीमन्दिर की ओर न जाकर प्रभु के वासस्थान की ओर जा रहे हैं और भवानन्द के पुत्र वाणीनाथ बहुत सा प्रसाद लिये हुए जल्दी-जल्दी भक्तों से पहले प्रभु के पास पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह देखकर महाराज ने पूछा- ‘आचार्य महाशय!‘ इन लोगों का प्रभु के प्रति कितना अधिक स्नेह है। बिना प्रभु को साथ लिये ये लोग अकेले भगवान के दर्शन के लिये भी नहीं जाते हैं। हाँ, ये वाणीनाथ इतना प्रसाद क्यों लिये जा रहे हैं?’ आचार्य ने कहा- ‘महाप्रभु प्रसाद द्वारा स्वयं इन सबका स्वागत करेंगे।’ महाराज ने कहा- ‘तीर्थ में आकर सबसे प्रथम क्षौर उपवास का विधान है, क्या उसे ये लोग न करेंगे?’ आचार्य ने कहा- ‘करेंगे क्यों नहीं, किन्तु प्रभु के प्रेम के कारण उनका सबसे पहले क्षौर ही हो तब प्रसाद पावें ऐसा आग्रह नहीं है। महाप्रभु के हाथ के प्रसाद से ये लोग अपना उपवास भंग नहीं समझते।’ महाराज ने कहा- ‘आप ठीक कहते हैं, प्रेम में नेम नहीं होता।’ इतना कहकर महाराज अट्टालिका से नीचे उतर आये और मन्दिर के प्रबन्धक से बहुत सा प्रसाद जल्दी से प्रभु के पास और पहुँचाने के लिये कहा। उन लोगों ने पहले से ही सब प्रबन्ध कर रखा था। महाराज की आज्ञा पाते ही उन्होंने और भी प्रसाद पहुँचा दिया। |