श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी113. महाराज प्रतापरुद्र को प्रभु दर्शन के लिये आतुरता
महाराज ने कहा- ‘जब वे सर्वसमर्थ होकर मुझ जैसे पापियों से इतनी घृणा करते हैं, तो मुझ-जैसे अधमों का उद्धार कैसे होगा।?’ भट्टाचार्य ने कहा- ‘उनकी तो ऐसी प्रतिज्ञा है कि वे राजा के दर्शन नहीं करते।’ महाराज के अत्यन्त ही वेदना के स्वर में कहा- ‘यदि उनकी ऐसी प्रतिज्ञा है, तो मेरी भी यह प्रतिज्ञा है कि या तो प्रभु की पूर्ण कृपा प्राप्ति करूँगा या इस शरीर का ही परित्याग कर दूँगा।’ महाराज के ऐसे दृढ़ अनुराग को देखकर सार्वभौम भट्टाचार्य बहुत ही विस्मित हुए और महाराज को सान्त्वना देते हुए कहने लगे- ‘महाराज, आप इतने अधीर न हों। मेरा हृदय कह रहा है कि प्रभु आपके ऊपर अवश्य कृपा करेंगे। कल राय रामानन्द जी ने प्रभु के सम्मुख आपकी बहुत ही प्रशंसा की थी, उसका प्रभाव मुझे प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर हुआ। प्रभु का मन आपकी ओर से बहुत ही अधिक कोमल हो गया है। अब आप एक काम कीजिये। राजवेष से तो उनसे मिलना ठीक नहीं है। रथयात्रा के समय जब प्रभु भक्तों के सहित जगन्नाथ जी के रथ के आगे आगे नृत्य करते हुए चलेंगे, तब आप साधारण वेष में जाकर उनके सामने कोई भक्तिपूर्ण श्लोक पढ़ने लगियेगा। प्रभु भक्त समझकर आपका दृढ़ आलिंगन करेंगे। तभी आपकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जायँगी।’ सार्वभौम भट्टाचार्य का बताया हुआ यह उपाय महाराज को पसंद आया और उन्होंने भट्टाचार्य से पूछा- ‘रथयात्रा किस दिन होगी?’ भट्टाचार्य ने हिसाब करके बताया- ‘आज से तीसरे दिन रथयात्रा होगी। तभी हम सब मिलकर उद्योग करेंगे।’ यह सुनने से महाराज को संतोष हुआ और भट्टाचार्य महाराज की अनुमति लेकर अपने स्थान को चले आये। |