श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी112. प्रेम रस लोलुप भ्रमर भक्तों का आगमन
इसके अनन्तर सार्वभौम भट्टाचार्य ने जगन्नाथ जी के अन्तरंग सेवक जनार्दन भगवान के स्वर्णबेंतधारी कृष्णदास, प्रधान लिखिया शिखी माइती, उनके भाई मुरारि तथा बहिन माध्वी और महापात्र प्रहरिराज प्रद्युम्न मिश्र आदि जगन्नाथ जी के सेवकों का प्रभु को परिचय कराया। प्रभु इन सबका परिचय पाकर उनकी बड़ाई करने लगे- ‘आप लोग की धन्य हैं, जो निरन्तर श्रीभगवान की सेवा पूजा में लगे रहते हैं। मनुष्य का मुख्य कर्तव्य यही है कि वह भगवत्सेवा पूजा के अतिरिक्त मन से भी दूसरे संसारी कामों का चिन्तन न करे।’ सभी भक्तों ने प्रभु के चरणों में प्रणाम किया और महाप्रभु की आज्ञा पाकर वे अपने अपने स्थानों के लिये चले गये। इसके अनन्तर महाप्रभु ने अपने साथ जाने वाले सेवक कृष्णदास को बुलाया। उसके आ जाने पर उसे लक्ष्य करके प्रभु भट्टाचार्य सार्वभौम से कहने लगे- ‘भट्टाचार्य, आप लोगों ने इसे मेरे साथ इसलिये भेजा था कि अचेतनावस्था में यह मेरे शरीर की देख-रेख करे, इसने यथाशक्ति मेरी खूब सेवा शूश्रूषा की; किन्तु यह एक स्थान में कुछ दम्भी साधुओं के बहकाने से कामिनी कांचन का लोभ में फंस गया। यह मुझे छोड़कर उनके साथ चला गया। जिसे कामिनी कांचन का लोभ हैं, जो अपनी इन्द्रियों पर इतना भी निग्रह नहीं कर सकता, उसे अपने पास रखना मैं उचित नहीं समझता। इसलिये आप इससे कह दें कि जहाँ इसकी इच्छा हो चला जावे। अब यह मेरे साथ नहीं रह सकता।’ प्रभु की ऐसी बात सुनकर (काला) कृष्णदास बड़े ही जोरों के साथ रुदन करने लगा। किन्तु प्रभु ने उसे फिर किसी भी प्रकार अपने साथ रखना स्वीकार नहीं किया। तब तो वह निराश होकर नित्यानन्द जी की शरण में गया और उनके चरण पकड़कर रोने लगा। नित्यानन्द आदि सभी भक्त इस बात को सोच रहे थे, कि ‘नवद्वीप में प्रभु के प्रत्यागमन का समाचार किस प्रकार पहुँचे। नवद्वीप के सभी भक्त प्रभु के वियोग दु:ख में व्याकुल बने हुए हैं, शचीमाता अपने प्यारे पुत्र का कुछ भी समाचार न पाने के कारण अधीर हो रही होगी, विष्णुप्रिया जी का तो एक एक दिन युग की भाँति कटता होगा, इसलिये कृष्णदास को ही नवद्वीप क्यों न भेज दें। इससे प्रभु की आज्ञा का भी पालन हो जायगा और शोकसागर में डूबे हुए सभी भक्तों को भी परम आनन्द हो जायगा।’ यह सोचकर उन्होंने अपने मनोगत भावों को प्रभु के सम्मुख प्रकट किया। प्रभु ने उत्तर दिया- ‘श्रीपाद ! मैं तो आपका नर्तक हूँ, जैसे नचायेंगे वैसे ही नाचूँगा। आपकी इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ नहीं कर सकता। जो आपको अच्छा लगे वही कीजिये।’ |