श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी14. बाल-लीला
आस-पास के दो-चार और भी ब्राह्मण वहाँ आ गये। सभी ने मिलकर ब्राह्मण से फिर भोजन बनाने की प्रार्थना की। सभी की बात को ब्राह्मण टाल न सके और वे दूसरी बार भोजन बनाने को राजी हो गये। शचीदेवी ने जल्दी से फिर चौका लगाया, ब्राह्मण देवता स्नान करके रसोई बनाने लगे। अब के बनाते-बनाते चार-पाँच बज गये। शची देवी ने निमाई को पलभर के लिये भी इधर-उधर नहीं जाने दिया। संयोग की बात, माता किसी काम से थोड़ी देर के लिये भीतर चली गयी। उसी समय ब्राह्मण ने रसोई तैयार करके भगवान के अर्पण की। वे आँख बंद करके ध्यान कर ही रहे थे कि उन्हें फिर खटपट-सी मालूम हुई। आँख खोलकर देखते हैं, तो निमाई फिर दोनों हाथों से चावल उठा-उठाकर खा रहे हैं और दाल को अपने शरीर से मल रहे हैं। इतने में ही माता भीतर से आ गयी। निमाई को वहाँ न देखकर वह दौड़कर ब्राह्मण की ओर गयी। वहाँ दाल से सने हुए निमाई को दोनों हाथों से भात खाते हुए देखकर वे हाय-हाय करने लगीं। मिश्र जी भी पास ही थे। अबके वे अपने गुस्से को न रोक सके। बालक को जाकर पकड़ लिया। वे उसको तमाचा मारने को ही थे कि ब्राह्मण ने जाकर उनका हाथ पकड़ लिया और विनती करके कहने लगे 'आपको मेरी शपथ है जो बच्चे पर हाथ उठावें। भला, अबोध बालक को क्या पता? रहने दीजिये, आज भाग्य में भोजन बदा ही नहीं है।’ निमाई डरे हुए माता की गोदी में चुपचाप चिपटे हुए थे, बीच-बीच में पिता की ओर छिपकर देख भी लेते कि उनका गुस्सा अभी शान्त हुआ या नहीं। माता को उनकी डरी हुई भोली-भाली सूरत पर बड़ी दया आ रही थी। इसलिये वे कुछ भी न कहर चुपचाप उन्हें गोद में लिये खड़ी थीं। |