श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी109. दक्षिण के शेष तीर्थों में भ्रमण
श्रीभगवन्नाम-संकीर्तन में अनन्त शक्ति है।’ यह कहकर महाप्रभु स्वयं अपने दोनों बाहुओं को उठाकर उच्च स्वर से हरि-नाम-संकीर्तन करने लगे। उस समय प्रेम के भावावेश में उनके दोनों नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह रही थी, शरीर के रोम खड़े हुए थे, रोमकूपों में से पसीना फब्बारे की तरह निकल रहा था। उनकी ऐसी दशा देखकर सभी देव दासियाँ अपने नारी-सुलभ कमनीय कण्ठ से- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। इस महामन्त्र का उच्च स्वर में कीर्तन करने लगीं। सम्पूर्ण देवालय महामन्त्र की ध्वनि से गूँजने लगा। उस संकीर्तन की बा़ढ़ में उन देव दासियों के समस्त पाप धुलकर बह गये, वे भगवन्नाम के प्रभाव से निष्पाप बन गयीं। उनमें से जो प्रधान देव-दासी थी, उसका नाम इन्दिरा था, वह आकर प्रभु के चरणों में गिर पड़ी और अत्यन्त ही दीनभाव से कहने लगीं- ‘प्रभो! व्यभिचार करते करते मेरी यह अवस्था हो गयी। अब ऐसी कृपा कीजिये कि श्रीहरि के चरणों में भक्ति हो।’ प्रभु ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा-‘देवि ! श्रीकृष्ण दयामय हैं, वे दीनों पर अत्यन्त ही शीघ्र कृपा करते हैं। तुम उनका ही भजन करो, उन्हीं के शरण में जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा।’ प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके उसने अपना सर्वस्व दीन-हीन गरीबों को बाँट दिया और स्वयं भिखारिणी का वेष बनाकर मन्दिर के द्वार पर भिक्षान्न से निर्वाह करती हुई, अहर्निश श्रीकृष्ण-कीर्तन में मग्न रहने लगी। और भी कई देव दासियों ने उसके पथ का अनुसरण किया। |