श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी108. दक्षिण के तीर्थों का भ्रमण (2)
महाप्रभु उसके ऐसे दृढ़ अनुराग को देखकर मुग्ध हो गये। ओहो ! कितना ऊंचा भाव है, इसे महापुरुष के सिवा कोई समझ ही क्या सकते हैं? प्रभु ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा- ‘विप्रवर ! आप इनते भारी विद्वान होकर भी ऐसी भूली-भूली बातें करते हैं। भला जगज्जननी सीता माता को चुरा ले जाने की शक्ति किसी में हो ही कैसे सकती?’ यह तो भगवान की एक लीला थी। आप भोजन करें और इस बात को मन में से निकाल दें। महाप्रभु के आग्रह से उसने थोड़ा बहुत प्रसाद पा लिया, किन्तु उसे पूर्ण सन्तोष नहीं हुआ। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में तो स्पष्ट सीतामाता का हरण लिखा हुआ है। इसीलिये वह ब्राह्मण चिन्तित ही बना रहा। महाप्रभु भी दूसरे दिन आगे को चल दिये। दक्षिण मथुरा से चलकर महाप्रभु ने कृतमाला तीर्थ में स्नान किया और महेन्द्र पर्वत पर जाकर परशुराम भगवान के दर्शन किये। वहाँ से सेतुबन्ध रामेश्वर के दर्शन करते हुए वे धनुस्तीर्थ में पहुँचे और उस तीर्थ में स्नान करके श्रीरामेश्वर में पहुँचे। वहाँ शिव जी के दर्शन करके प्रभु लौट ही रहे थे कि कुछ ब्राह्मणों को वहाँ बैठे हुए देखा। वहाँ पर कूर्मपुराण की कथा हो रही थी। प्रभु भी कथा सुनने के लिये बैठ गये। दैवयोग से उस समय सीता जी के हरण का प्रसंग हो रहा था। प्रभु ने कूर्मपुराण में सुना- ‘जिस समय जनकनन्दिनी सीता जी ने दशग्रीव रावण को देखा तब उन्होंने अग्नि की आराधना की। उसी समय अग्नि ने सीता को अपने पुर में रख लिया और उसकी छाया को बाहर रहने दिया। राक्षसराज रावण सीता जी की उस छाया को ही हरकर ले गया था। जब रावण को मारकर भगवान ने सीता जी की अग्नि परीक्षा की, तब अग्नि ने असली सीता जी को निकालकर दे दिया। वास्तव में रावण सीता जी की छाया को ही हरकर ले गया था। असली सीता का तो उसने स्पर्श तक नहीं किया।’ |