श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी106. दक्षिण के तीर्थों का भ्रमण
उस पुरुष ने कहा- ‘भगवन ! मैं एक अपठित बुद्धिहीन ब्राह्मण-वंश में उत्पन्न हुआ निरक्षर और मूर्ख ब्राह्मण बन्धु हूँ। शुद्धाशुद्ध का कुछ भी बोध नहीं है। मेरे गुरुदेव ने मुझे आदेश दिया था कि तू गीता का नित्यप्रति पाठ किया कर। भगवन ! मैं गीता का अर्थ क्या जानूँ। मैं तो पाठ करते समय इसी बात का ध्यान करता हूँ कि सफेद रंग के चार घोड़ों से जुता हुआ एक बहुत सुन्दर रथ खड़ा हुआ है। उसकी विशाल ध्वजा पर हनुमान जी विराजमान हैं, खुले हुए रथ में अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित अर्जुन कुछ शोक के भाव से धनुष को नीचे रखे बैठा है। भगवान अच्युत सारथी के स्थान पर बैठे हुए मंद मुस्कान के साथ अर्जुन को गीता का उपदेश कर रहे हैं। बस, भगवान की इसी रुपमाधुरी का पान करते करते मैं अपने आपे को भूल जाता हूँ। भगवान की वह त्रिलोकपावनी मूर्ति मेरे नेत्रों के सामने नृत्य करने लगती है, उसी के दर्शनों से मैं पागल-सा बन जाता हूँ। लोग मेरे पाठ को सुनकर पहले बहुत हंसते थे। बहुत से तो मुझे बुरा-भला भी कहते थे। अब कहते हैं या नहीं-इस बात का तो मुझे पता नहीं है, किन्तु मैंने किसी की हंसी की कुछ परवा नहीं की। मैं इसी भाव से पाठ करता ही रहा। अब मुझे इस पाठ में इतना रस आने लगा है कि मैं एकदम संसार को भूल-सा जाता हूँ। आज ही आकर आपने मुझसे दो मीठी बातें की हैं, नहीं तो लोग सदा मेरी हंसी ही उड़ाते रहते हैं। मालूम पड़ता है, आप साक्षात श्रीनारायण हैं, जो मेरे पाठ का फल देने के लिये यहाँ पधारे हैं। आप चाहे कोई भी क्यों न हों, हैं तो कोई अलौकिक दिव्य पुरुष। आपके चरणकमलों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है।’ इतना कहकर वह प्रभु के चरणों में गिर पड़ा। |