श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी105. राय रामानन्द से साधन-सम्बन्धी प्रश्न
नायं सुखापो भगवान देहिनां गोपिकासुत:। अर्थात ‘नन्दनन्दन’ भगवान वासुदेव जिस प्रकार भक्त को भक्ति से सहज में प्राप्त हो सकते हैं, उस प्रकार देहाभिमानी, कर्मकाण्डी तथा ज्ञानाभिमानी पुरुष को प्राप्त नहीं हो सकते।’ इसीलिये तो गोपियों के प्रेम को सर्वोत्तम कहा- यदपि जसोदा नन्द अरु ग्वालबाल सब धन्य। गोपियों के प्रेम की बराबरी कौन कर सकता है। राम-बिलास के समय जिनके भुजदण्डों का आश्रय ग्रहण करके जो गोपिकाएँ धन्य बन चुकी हैं, उनकी पदधूलि के बिना कोई प्रेम का अधिकारी बन ही नहीं सकता। प्रभु ने राय महाशय की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसी प्रकार रातभर दोनों में बातें होती रहीं। रोज प्रात:काल रात्रि समझकर चकवा-चकवी की भाँति ही पृथक हो जाते थे और रात्रि को दिन मानकर दोनों ही उस प्रेम-सरोवर के समीप एकत्रित हो जाते थे। इस प्रकार कई दिनों तक सत्संग और साध्य साधन निर्णय होता रहा। एक दिन प्रभु ने राय महाशय से कुछ अत्यन्त ही रहस्यमय गूढ़ प्रश्न पूछे, जिनका उत्तर राय ने भगवत-प्ररेणा से जैसा मन में उठा वैसा याथातथ्य दिया। प्रभु ने पूछा- ‘राय महाशय ! मुझे सम्पूर्ण विद्याओं में श्रेष्ठ पराविद्या बताइये, जिससे बढ़कर दूसरी कोई विद्या ही न हो।’ राय ने कुछ लज्जितभाव से कहा- ‘प्रभो ! मैं क्या बताऊँ, श्रीकृष्ण-भक्ति के अतिरिक्त और सर्वोत्तम विद्या हो ही कौन सकती है? उसी के लिये परिश्रम करना सार्थक है, शेष सभी व्यर्थ है।’ श्रीकृष्णेति रसायनं रसपरं[2] शून्यै: किमन्ये: श्रमै:’ प्रभु ने पूछा- ‘सर्वश्रेष्ठ कीर्ति कौन सी कही जा सकती है?’ राय ने कहा- ‘प्रभो ! श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से लोगों में परिचय होना यही सर्वोत्तम कीर्ति है।’ |