श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी103. राजा रामानन्द राय
महाप्रभु ने कहा- ‘राय महाशय ! मैं आपके मुख से श्रीकृष्ण-कथा सुनने के निमित्त ही यहाँ आया हूँ, कृपा करके मुझे श्रीकृष्ण –कथा सुनाकर कृतार्थ कीजिये।’ रामानन्द जी ने कहा- ‘भगवन ! संसारी कीचड़ में फँसा हुआ मैं मायाबद्ध जीवन भला श्रीकृष्ण-कथा का आपके सम्मुख कथन ही क्या कर सकता हूँ? आप तो साक्षात श्रीहरि के स्वरुप हैं।’ प्रभु ने कहा- ‘संन्यासी समझकर आप मेरी प्रवंचना मत करें। सार्वभौम महाशय ने मेरे शुष्क हृदय को सरल बनाने के निमित्त ही यहाँ भेजा है। आप मुझे भक्तितत्त्व बताकर मेरे मलिन मन को विशुद्ध बनाइये।’ महाप्रभु और रामानन्द के बीच में इस प्रकार की बातें हो ही रही थीं कि उसी समय एक वैदिक ब्राह्मण ने आकर प्रभु को भोजन के लिये निमन्त्रित किया। राय महाशय ने भी समझा कि यहाँ इतनी भीड़-भाड़ में इन महापुरुष से आन्तरिक बातें करना ठीक नहीं है। अत: ‘फिर आकर दर्शन करूँगा’ ऐसा कहकर रामानन्द जी ने प्रभु से अपने स्थान में जाने की आज्ञा मांगी। प्रभु ने अत्यन्त ही स्नेह से कहा ‘भूलियेगा नहीं। अवश्य पधारियेगा। आपसे मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। आपके मुख से श्रीकृष्ण-कथा सुनने की बड़ी उत्कटा इच्छा हो रही है। क्यों आयेंगे न?’ रामानन्द जी ने सिर नीचा करके धीरे से कहा- ‘अवश्य आऊँगा, शीघ्र ही श्रीचरणों के दर्शन करके अपने को कृतार्थ बनाऊँगा। प्रभो! जब आपने इस अधमपर इतना अपार अनुग्रह किया है, तब कुछ काल तक तो यहाँ निवास करके मुझे संगतिमुख दीजिये ही। मैं इतना अधिक पापी हूँ कि आपके केवल दर्शनों से ही मेरा उद्धार न हो सकेगा।’ इतना कहकर राय महाशय ने प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम किया और वे अपने सेवकों के सहित राजधानी की ओर चले गये। इधर महाप्रभु भी उस ब्राह्मण के साथ उसके घर भिक्षा करने के लिये गये। |