श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी101. दक्षिण यात्रा के प्रस्थान
भट्टाचार्य ने कहा- ‘प्रभो ! आपके लौटने तक क्या हो, इस बात का किसे पता है। यह जीवन क्षणभंगुर है। आप मुझे निराश्रित छोड़कर अकेले न जाइये!’ प्रभु ने प्रेमपूर्वक कहा- ‘ये भक्त मेरी अनुपस्थिति में यहीं रहेंगे। आप सब मिलकर कृष्णकीर्तन करते रहिये। मैं शीघ्र ही लौअ आऊँगा। आप प्रसन्न होकर मुझे अनुमति प्रदान कीजिये।’ कुछ विवशता प्रकट करते हुए शोक के स्वर में भट्टाचार्य ने कहा- ‘आप स्वतन्त्र ईश्वर हैं, आपकी इच्छा के विरुद्ध बर्ताव करने की शक्ति ही किसमें है? आप दक्षिण-देश के तीर्थों की यात्रा करने के निमित्त अवश्य ही जायँगें, किंतु मेरी हार्दिक इच्छा है कि कुछ काल यहाँ और रहकर मेरी सेवा स्वीकार कीजिये।’ भक्तवत्सल गौरांग अपने परमप्रिय कृपापात्र सार्वभौम भट्टाचार्य के इस अनुरोध की उपेक्षा न कर सके। वे पाँच दिनों तक भट्टाचार्य की सेवा को स्वीकार करके पुरी में ही रहे और नित्यप्रति भट्टाचार्य के ही घर उनकी प्रसन्नता के निमित्त भिक्षा करते रहे। भट्टाचार्य की पत्नी भाँति-भाँति के सुस्वादु पदार्थ बना-बनाकर प्रभु को भिक्षा कराती थीं। इस प्रकार पाँच दिनों तक भट्टाचार्य के घर भिक्षा करके और उनके चित्त को सन्तुष्ट बनाकर प्रभु ने दक्षिण-यात्रा की तैयारियाँ कीं। प्रात: काल प्रभु भक्तों के सहित उठकर नित्य-कर्म से निवृत हुए। उसी समय अपने दो-चार प्रधान शिष्यों के सहित सार्वभौम भट्टाचार्य प्रभु के स्थान पर आ पहुँचे। प्रभु उन अपने सभी भक्तों के सहित श्रीजगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये गये। मन्दिर में जाकर प्रभु ने श्रद्धा-भक्ति के सहित भगवान के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और उनसे दक्षिण-यात्रा की अनुमति माँगी। उसी समय पुजारी ने भगवान की प्रसाद माला और प्रसादान्न लाकर प्रभु को दिया। प्रभु ने इसे ही भगवत-आज्ञा समझकर प्रसाद को शिरोधार्य किया और मन्दिर की प्रदक्षिणा करते हुए प्रभु सभी भक्तों के सहित समुद्र-तट पर पहुँचे। प्रभु भट्टाचार्य से बार-बार लौट जाने का आग्रह कर रहे थे, किंतु भट्टाचार्य लौटते ही नहीं थे। तब तो प्रभु अत्यन्त ही दु: खित होकर वहाँ बैठ गये और सार्वभौम को भाँति-भाँति से समझाने लगे। सार्वभौम चुपचाप बैठे प्रभु की बातें सुन रहे थे। |