श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी12. अलौकिक बालक
बिना पूजा किये जो बच्चे मिठाई को खा लेते हैं, उनके कान पक जाते हैं। रोवे मत। ये तेरे सब साथी तेरी हँसी करेंगे कि निमाई कैसा रोने वाला है?’ माता की इन बातों का निमाई पर कुछ भी असर नहीं हुआ। वे बराबर रोते ही रहे। किसी ने जाकर उन ब्राह्मणों से ये बातें कह दीं। ये दोनों वैष्णव ब्राह्मण पण्डित जगन्नाथ मिश्र के पड़ोसी थे और मिश्र जी से बड़ा प्रेम मानते थे। निमाई उनके घर बहुत जाया-आया करते थे। इस बात को सुनकर उनके घर के सभी लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि निमाई को यह कैसे पता चला कि हमारे घर आज भगवान के लिये नैवेद्य तैयार हो गया है। कुछ भी हो, वे बड़ी प्रसन्नता से नैवेद्य लेकर निमाई के पास आये। निमाई ने सभी सामग्रियों में से थोड़ा-थोड़ा लेकर खा लिया, तब ये शान्त हुए। माता को इनकी ऐसी बातों पर बड़ा दुःख हुआ। वे सोचने लगीं- इस पर जरूर कोई भूत-पिशाच आता है, इसलिये उन्होंने देवताओं के नाम से द्रव्य उठाकर रख दिया, देवियों की पूजा की और बहुत-सी मनौतियाँ भी मानीं। वे निमाई की ऐसी दशा देखकर मन में किसी अशुभ बात की शंका करके डर जातीं और बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त भाँति-भाँति के उपाय सोचतीं। धीरे-धीरे इनकी अवस्था पाँच साल के लगभग हुई। पिता ने इनका अक्षरारम्भ कराया। लिखने के लिये हाथ में पट्टी और खड़िया दी। भला इन्हें क्या पढ़ना था, ये तो सभी कुछ पढे़-पढ़ाये ही आये थे। पिता को दिखाने के लिये तो कभी ये पट्टी पर कुछ उलटी-सीधे लकीरें करने लगते किन्तु वैसे पढ़ते कुछ भी नहीं थे। खड़िया को लेकर शरीर से मल लेते, लम्बे-लम्बे माथे पर उसके तिलक लगा लेते और माता से कहते- ‘अम्मा! तेरे घर में एक परम वैष्णव आया है, कुछ भिक्षा देगी?’ माता इनके तिलकों को देखती और हँस पड़ती। गोद में बिठाकर मुख चूमती और कहती- ‘बेटा इतना उपद्रव नहीं किया करते हैं। कुछ पढ़ना-लिखना भी चाहिये। अब तो निरा बालक ही नहीं है। तेरी बराबरी के ब्राह्मण के बालक पोथी पढ़ लेते हैं, तू वैसे ही दिनभर इधर-उधर खेला करता है।’ ये माता की बातों को सुन लेते और मुसकरा देते। खा-पीकर जल्दी बालकों में खेलने के लिये भाग जाते। सभी बालकों को लेकर ये उन्हें नाचना सिखाते। तीन-तीन, चार-चार बालक मिलकर हाथ पकड़-पकड़ नाचते और घूमते-घूमते कभी चक्कर आने से धूलि में गिर भी पड़ते। कभी ऊपर हाथ उठा-उठाकर ‘हरि बोल, हरि बोल’ कहकर खूब नाचते। इनके साथ-साथ और बालक भी ‘हरि बोल, हरि बोल’ की उच्च-ध्वनि करने लगते। रास्ता चलने वाले लोग इनके खेलों को देखकर खडे़ हो जाते और घंटों इनकी लीलाओं को देखा करते। बहुत-से विद्वान पण्डित भी उधर से निकलते, बच्चों के साथ निमाई को नाचते देखकर उन्हें अपनी पुस्तकी-विद्या पर बड़ी लज्जा आती। उनका जी चाहता था कि सब कुछ छोड़-छाड़कर इन बच्चों के ही साथ नृत्य करने लगें, किन्तु लोक-लज्जा उन्हें ऐसा न करने के लिये विवश करती। इस प्रकार ये खेल में भी बालकों को कुछ-न-कुछ शिक्षा देते रहते। पिता इन्हें जितना ही पढ़ाना चाहते थे ये उतने ही पढ़ने से भागते थे। ज्यों-ज्यों इनकी अवस्था बड़ी होती जाती थी, त्यों-त्यों चंचलता भी पहले से अधिक बढ़ती जाती थी। |