श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी98. सार्वभौम का भगवत-प्रसाद में विश्वास
गाया तिन पाया नहीं, अनगाये ते दूर। सार्वभौम भट्टाचार्य को प्रभु के पादपद्मों में पूर्ण श्रद्धा हो गयी थी। शास्त्र का वचन है कि हृदय में भगवान की भक्ति उत्पन्न होने से सभी सद्गुण अपने-आप ही बिना बुलाये हृदय में आकर निवास करने लगते हैं। सद्गुण तो भगवत-भक्ति की छाया है। छाया शरीर को छोड़कर दूसरी जगह रह नहीं सकती। किसी एक में विश्वास होने पर सभी सत्कर्मों में स्वत: ही श्रद्धा हो सकती है। एक दिन महाप्रभु अरुणोदय के समय श्रीजगन्नाथ जी के शयनोत्थान के दर्शन के लिये गये। प्रभु के दर्शन कर लेने पर पुजारी ने उन्हें प्रसादी माला और प्रसादी अन्न दिया। प्रभु ने बड़े आदर के सहित उस महाप्रसाद को दोनों हाथ फैलाकर ग्रहण किया और अपने वस्त्र में बाँधकर वे सार्वभौम भट्टाचार्य के घर की ओर चले।प्रभु बिना सूचना दिये ही भीतर चले गये। सार्वभौम उसी समय निद्रा से जगकर भगवन्नामों का उच्चारण करते हुए शय्यापर से उठने ही वाले थे कि तब तक महाप्रभु पहुँच गये। प्रभु को देखते ही सार्वभौम अस्त-व्यस्त भाव से जल्दी-जल्दी शय्या पर से उठे और प्रभु के चरण-कमलों में साष्टांग प्रणाम किया तथा उन्हें बैठने के लिये सुन्दर आसन दिया। आसन पर बैठते ही प्रभु ने अपने वस्त्रों में से भगवान का प्रसाद खोलकर सार्वभौम को दिया। महाप्रभु आज कृपा करके अपने हाथ से महाप्रसाद दे रहे हैं, यह सोचकर सार्वभौम की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने दीन-हीन अभ्यागत की भाँति उस महाप्रसाद को ग्रहण किया और हाथ पर आते ही बिना शौचादि से निवृत होकर वैसे ही बासी मुख से वे प्रसाद को पाने लगे। प्रसाद को पाते जाते थे और आनन्द के सहित पद्मपुराण के इन श्लोकों को पढ़ते जाते थे- शुष्कं पर्युषितं वापि नीतं वा दूरदेशत: । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाप्रसाद चाहे सूखा हो, बासी हो अथवा दूर देश से लाया हुआ हो, उसे पाते ही खा लेना चाहिये। उसमें काल के विचार करने की आवश्यकता नहीं है। महाप्रसाद में देश अथवा काल का नियम नहीं है। शिष्ट पुरुषों को चाहिये कि जहाँ भी जिस समय भी महाप्रसाद मिल जाय उसे वहीं उस समय पाते ही जल्दी से खा लें। ऐसा भगवान ने साक्षात अपने श्रीमुख से कहा है।