श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी97. सार्वभौम भक्त बन गये
अत्यन्त ही आश्चर्य प्रकट करते हुए सम्भ्रम के साथ भट्टाचार्य सार्वभौम कहने लगे- ‘क्या कहा, मेरे अर्थों के सिवा और भी इसके अर्थ हो सकते हैं? यदि आप कर सकते हों तो सुनाइये।’ प्रभु ने बड़ी ही सरलता के साथ विनीत स्वर में कहा- ‘मैं क्या कर सकता हूँ। ऐसे ही आप गुरुजनों के मुख से मैंने इसकी कुछ थोड़ी-बहुत व्याख्या सुनी है, उसमें से जो कुछ थोड़ी-बहुत याद हैं, उसे आपकी आज्ञा से सुनाता हूँ।’ यह कहकर महाप्रभु ने अठारह प्रकार से इस श्लोक की व्याख्या की। महाप्रभु के मुख से इस प्रकारकी पाण्डित्यपूर्ण व्याख्या सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वे अपने आपे को भूल गये और जिस प्रकार स्वप्न में कोई अद्भुत घटना को देखकर आश्चर्य के सहित उसकी ओर देखता रहता है, उसी प्रकार वे प्रभु की ओर देखते रहे! अब उन्हें प्रभु की महिमा का पता चला, अब उनके हृदय में छिपी हुई भक्ति जाग्रत हुई। मानो इस श्लोक की व्याख्या ने ही इनकी अव्यक्त भक्ति को व्यक्त बना दिया। वे अपने पद, मान, प्रतिष्ठा और सम्मान आदि के अभिमान को भुलाकर एक छोटे बालक की भाँति सरलतापूर्वक प्रभु के पादपह्यों में गिर पड़े। उन्होंने अपने हाथों की लाल रंगवाली मोटी-मोटी उंगलियों से प्रभु के दोनों अरुण चरण पकड़ लिये और रोते-रोते ‘पाहि माम्’ ‘रक्ष माम्’ कहकर स्तुति करने लगे- संसारकूपे पतितो ह्यगाधे इस संसाररूपी अगाध समुद्र में डूबते हुए विषयासक्त मुझ अधम को अपने हाथों का सहारा देकर हे नाथ! आप उबार लीजिये। हे गोविन्द! हे माधव!!! मैं आपकी शरण हूँ। |