श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी97. सार्वभौम भक्त बन गये
प्रभु की इस बात से सार्वभौम महाशय को बड़ी भारी प्रसन्नता हुई। योग्य अध्यापक को यदि समझदार और अधिकारी छात्र पढ़ने के लिये मिल जाय, तो इससे अधिक प्रसन्नता उसे दूसरी किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती। गुरु का हृदय योग्य शिष्य की निरन्तर खोज करता रहता है और अपने योग्य शिष्य पाकर वह उसे सर्वस्व समर्पण करने के लिये लालायित बना रहता है। दूसरे दिन से महाप्रभु वेदान्तसूत्रों का शारीरकभाष्य सुनने लगे। सार्वभौम महाशय बड़े ही उत्साह से उल्लास के सहित शारिरकभाष्य का प्रवचन करने लगे। पाठ पढ़ाते-पढ़ाते आनन्द के कारण उनका चेहरा दमकने लगता और वे अपने सम्पूर्ण पाण्डित्य को प्रदर्शित करते हुए विस्तार के सहित पाठ को सुनाते। महाप्रभु चुपचाप एकाग्र दृष्टि से अधोमुख किये हुए पाठ सुनते रहते। बीच में वे एक भी शब्द नहीं बोलते। इस प्रकार लगातार सात दिनों तक बराबर वे पाठ सुनते रहे। जब भट्टाचार्य ने देखा, ये तो बोलते ही नहीं, पता नहीं इनकी समझ में यह व्याख्या आती भी है या नहीं। विषय बहुत ही गूढ़ है, बहुत सम्भव है ये उसे न समझ सकते हों। इसीलिये उन्होंने पूछा- ‘स्वामी जी ! आप तो चुपचाप बैठकर सुनते ही रहते हैं। पाठ अच्छा हुआ या बुरा- यह सब आप कुछ नहीं बताते।’ महाप्रभु ने विनीतभाव से कहा- ‘आपने मुझे पाठ सुनने की ही आज्ञा तो दी थी, इसीलिये आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करके पाठ सुना करता हूँ।’ कुछ हंसकर प्रेमपूर्वक सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा- ‘सुनने के यह मानी थोड़े ही है कि पत्थर की मूर्ति की भाँति मूक बनकर सुनते ही रहना। जहाँ जो बात समझ में न आये, उसे फिर से पूछना चाहिये। कोई शंका उत्पन्न हो तो उसे पूछकर उसका समाधान करा लेना चाहिये। पाठ सुनने के मानी हैं उस विषय में नि:शंक हो जाना। पाठ का विषय इस प्रकार हृदयंगम हो जाय कि फिर कोई शंका उठा ही न सके। कहिये, आपकी समझ में तो सब कुछ आता है न ?’ कुछ लज्जितभाव से प्रभु ने कहा- ‘भला, मैं मूर्ख इस गहन विषय को समझ ही क्या सकता हूँ और थोड़ा-बहूत समझ भी लूं तो आपके सामने शंका करने का साहस ही कैसे कर सकता हूँ।’ |