|
श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
95. आचार्य वासुदेव सार्वभौम
जिस समय वे नवद्वीप में विधार्थी बनकर विद्याध्ययन करते थे उस समय नवद्वीप संस्कृत-विद्या का एक प्रधान पीठ बना हुआ था। गौड़, उत्कल और बिहार आदि सभी देशों के छात्र वहाँ आ-आकर संस्कृत-विद्या का अध्ययन करते थे। नवद्वीप में व्याकरण, काव्य, अलंकार, ज्योतिष, दर्शन तथा वेदान्तादि शास्त्रों की समुचितरूप से शिक्षा दी जाती थी, किन्तु तब तक नव्य-न्याय का इतना अधिक प्रचार नहीं था या यों कह सकते हैं कि तब तक गौड़-देश में नव्य-न्याय था ही नहीं। गौड़-देश के सभी छात्र न्याय पढ़ने के निमित्त मिथिला जाया करते थे। उन दिनों मिथिला ही न्याय का प्रधान केन्द्र समझा जाता था। मैथिल पण्डित वैसे तो जो भी उनके पास न्याय पढ़ने आता उसे ही प्रेमपूर्वक न्याय की शिक्षा देते, किन्तु वे न्याय की पुस्तकों को साथ नहीं ले जाने देते थे। विशेषकर बंगदेशीय छात्रों को तो वे खूब ही देख-रेख रखते। उस समय आज की भाँति छापने के यन्त्रालय तो थे ही नहीं। पण्डितों के ही पास हाथ की लिखी हुई पुस्तकें होती थीं, वही उनका सर्वस्व था। उनकी प्रतिलिपि भी वे सर्वसाधारण को नहीं करने देते थे। जब किसी की वर्षों परीक्षा करके उसे योग्य अधिकारी समझते तब बड़ी कठिनता से पुस्तक की प्रतिलिपि करने देते। पुस्तकों के अभाव से नवद्वीप में कोई न्याय की पाठशाला ही स्थापित न हो सकी थी। सर्वप्रथम रामभद्र भट्टाचार्य ने न्याय की एक छोटी-सी पाठशाला खोली। वे भी मिथिला से न्याय पढ़कर आये थे, किन्तु पुस्तक के अभाव से वे छात्रों की शंकाओं का ठीक-ठीक समाधान नहीं कर सकते थे।
विद्यार्थी वासुदेव भी अपने भाई मधुसुदन के साथ रामभद्र भट्टाचार्य की पाठशाला में न्याय पढ़ने लगे। कुशाग्रबुद्धि वासुदेव अपने न्याय के अध्यापक के सम्मुख जो शंका उठाते, उसका यथावत उतर न पाकर वे असन्तुष्ट होते। इनके अध्यापक इनकी प्रत्युत्पन्न प्रखर बुद्धि को समझ गये और इनसे एक दिन एकान्त में बोले- ‘भैया ! तुम सचमुच में नैयायिक बनने योग्य हो, तुम्हारी बुद्धि बड़ी ही कुशाग्र है। मैं तुम्हारी शंकाओं का ठीक-ठीक समाधान करने में असमर्थ हूँ। इसका प्रधान कारण यह है कि हमारे यहाँ तो कोई न्याय का पण्डित है नहीं। हम सबको न्याय पढ़ने के लिये मिथिला जाना पड़ता है। मिथिला ही आजकल भारतवर्ष में न्याय का प्रधान केन्द्र माना जाता है। मैथिल पण्डित पढ़ाने के लिये तो किसी को इनकार नहीं करते, जो भी उनके पास पढ़ने की इच्छा से जाता है, उसे प्रेमपूर्वक पढ़ाते हैं; किन्तु पुस्तक वे किसी को साथ नहीं ले जाते देते। ऐसी स्थिति में बिना पुस्तक जितना हम पढ़ा सकते उतना पढ़ाते हैं।’
|
|