श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी94. श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन से मूर्छा
तवास्मीति वदन् वाचा तथैव मनसा विदन्। अठारहनला पहुँचने पर प्रभु को कुछ-कुछ बाह्य-ज्ञान हुआ। आप वहीं कुछ चिन्तित-से होकर बैठ गये। दोनों आँखों रोते-रोते लाल पड़ गयी थीं। भृकुटी चढ़ी हुई थी। शरीर में सभी सात्त्विक भावों का उद्दीपन हो रहा था। कुछ प्रकृतिस्थ थे, कुछ भावावेश में बेसुध– से थे। उसी मध्य की अवस्था में अपने भक्तों से बहुत ही नम्रता के साथ कहा- ‘भाइयो ! आप लोगों ने मेरे साथ बहुत बड़ा उपकार किया है। इससे बढ़कर और उपकार हो ही क्या सकता है। आप लोगों ने मुझे रास्ते की भाँति-भाँति की विपत्ति से बचाकर यहाँ तक पहुँचा दिया। आप लोग मेरे साथ न होते तो न जाने मैं कहाँ-कहाँ भटकता फिरता, इस बात का निश्चय नहीं था कि मैं यहाँ तक आ भी सकता या नहीं। आप लोगों ने कृपा करके मुझे श्री जगन्नाथ पुरी के दर्शन करा दिये। मैं कृतार्थ हो गया। मैंने आप लोगों को यहाँ तक साथ रखने का विचार किया था। अब आप लोगों की जहाँ इच्छा हो, वहीं जाइये। अब मैं आप लोगों के साथ न रहूँगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शरणागत भक्त वाणी से तो आर्तस्वर में कहता जाता है- ‘प्रभो ! मैं तुम्हारा हूँ’ और मन में भगवान की भक्त वत्सलता का विश्वास बनाये रखता है तथा भगवान के पूजा स्थान को अपने शरीर को लोट-पोट करता हुआ वहीं पड़ा रहता है। इस प्रकार कर्मों द्वारा वह आनन्द को प्राप्त करता है। (वैष्णवतन्त्र)