श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी93. श्रीभुवनेश्वर महादेव
मुकुन्ददत्त के ऐसे प्रश्न को सुनकर कुछ मुसकराते प्रभु ने कहा- ‘मुकुन्द ! तुमने यह बहुत ही उत्तम प्रश्न पूछा। इन भगवान भूतनाथ के यहाँ पधारने की बड़ी ही अद्भुत कथा है। स्कन्दपुराण में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है, उसी को संक्षेप में तुम लोगों को सुनाता हूँ। इस हरि-हर-महिमावाली पुण्य कथा को तुम लोग ध्यानपूर्वक सुनो। पूर्वकाल में शिव जी काशीवासी के ही नाम से प्रसिद्ध थे। वाराणसी को ही उन्होंने अपनी लीलास्थली बनाया। शिव जी के सभी काम विचित्र ही होते हैं, इसीलिये लोग इन्हें औघड़नाथ कहते हैं। औघड़नाथ बाबा का काशी जी में भी कुछ गर्मी-सी प्रतीत होने लगी। इसलिये आप काशी को छोड़कर कैलास पर्वत के शिखर पर जाकर रहने लगे। इधर काशी सूनी हो गयी। वहाँ एक राजा ने अपनी राजधानी बना ली और वह बड़े ही भक्तिभाव से भगवान भूतनाथ की पूजा करने लगा। राजा ने हजारों वर्ष तक शिव जी की घोर अराधना की। उसके उग्र तप से आशुतोष भगवान प्रसन्न हुए और उसके सामने प्रकट होकर उसने वरदान मांगने को कहा। राजा ने दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए विनीतभाव से करुण स्वर में कहा- ‘प्रभो ! मैं अब आपसे क्या मागूं ? आपके अनुग्रह से मेरे धन्य-धान्य, राज-पाट, पुत्र-परिवार आदि सभी संसार की उत्तम समझी जाने वाली वस्तुएँ मौजूद हैं। मेरी एक बड़ी उत्कट इच्छा है, उसे सम्भवतया आप पूरी न कर सकेंगे।’ शिव जी ने प्रसन्नता के वेग में कहा- ‘राजन ! मेरे लिये प्रसन्न होने पर त्रिलोकी में कोई भी वस्तु अदेय नहीं है। तुम्हारी जो इच्छा हो, उसे ही निसंकोच-भाव से मांग लो।’ राजा ने अत्यन्त ही दीनता प्रकट करते हुए सरलता से कहा- ‘हे वरद ! यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर ही देना चाहते हैं, तो मुझे यही वरदान दीजिये कि युद्ध में मैं श्रीकृष्णचन्द्र जी को परास्त कर सकूँ।’ सदा आक-धतूरे के नशेमें मस्त रहने वाले औघड़दानी सदाशिव वरदान देने में आगा-पीछा नहीं सोचते। कोई चाहे भी जैसा वर क्यों न माँगे; उससे इन्हें स्वयं भी चाहे क्लेश क्यों न उठाना पड़े, ये वरदान देते समय ‘ना’ करना तो सीखे ही नहीं हैं। |