श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी11. प्रेम-प्रवाह
हाथ के कडूलों को मिट्टी से घिसकर चमकीला किया। कमर में करधनी पहनायी, उसे एक काले डोरे से बाँध भी दिया। पैरों में छोटे-छोटे कडूले पहनाये। कण्ठ में कठुला पहनाया। कई एक काले गंडे-ताबीज बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त पहले से ही पड़े थे। बड़ी-बड़ी कमल-सी आँखों में काजल लगाया। बायीं ओर मस्तक पर एक काला-सा टिप्पा भी लगा दिया, जिससे बच्चे को नजर न लग जाय। खूब श्रृंगार करके माता बच्चे के मुख की ओर निहारने लगी। माता उस अपूर्व सौन्दर्य-माधुरी का पान करते-करते अपने आपे को भूल गयी। इतने में ही विश्वरूप ने आकर कहा- ‘अम्मा! अभी भात नहीं बनाया?’ कुछ झूठी व्यग्रता और रोब दिखाते हुए माता ने जल्दी से कहा- ‘तेरे इस छोटे भाई से मुझे फुरसत मिले तब भात भी बनाऊँ। यह तो ऐसा नटखट है कि तनिक आँख बचते ही घर से बाहर हो जाता है, फिर इसका पता लगाना ही कठिन हो जाता है।’ विश्वरूप ने कहा- ‘अच्छा ला, इसे मैं खेलाता हूँ। तू तब तक जल्दी से रन्धन कर।’ यह कह विश्वरूप ने बालक निमाई को अपनी गोद में ले लिया। माता तो दाल-चावल बनाने में व्यस्त हो गयी और विश्वरूप धूप में बैठ गये। भला विश्वरूप-जैसे विद्याव्यासंगी बालक ख़ाली कैसे बैठे रह सकते हैं? वे निमाई को पास बिठाकर पुस्तक पढ़ने लगे। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते वे उसमें तन्मय हो गये। अब निमाई को किसका भय? धीरे से रेंग-रेंगकर आप आँगन के दूसरी ओर एकान्त में जा पहुँचे? वहाँ पर एक कोई बड़भागी सर्प देवता बैठे हुए थे। बस, निमाई को एक नूतन खिलौना मिल गया। वे उनके साथ खेलने लगे। माता शरीर से तो दाल-भात बनाती जाती थीं, किन्तु उनका मन निमाई की ही ओर लगा हुआ था। थोड़ी देर में जब उसने दोनों भाइयों में कुछ भी बातें-चीतें न सुनीं तो विश्वरूप को सावधान करने के निमित्त उन्होंने वहीं से पूछा- ‘विश्वरूप! निमाई सो गया क्या? मानो कोई घोर निद्रा से जागकर अपने चारों ओर जगाने वाले को भौंचक्के की भाँति देखता है, उसी प्रकार पुस्तक से नजर उठाकर विश्वरूप ने कहा- ‘क्या अम्मा! क्या कहा? निमाई? निमाई तो यहाँ नहीं है।’ मानो माता के कलेजे में किसी ने गरम ठेस लगा दी हो, उनका मातृहृदय उसी समय किसी अशुभ आशंका के भय से पिघलने लगा। वे दाल-भात को वैसे ही छोड़कर जल्दी से बाहर आयीं। |