श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी90. महाप्रभु का प्रेमोन्माद और नित्यानन्दजी द्वारा दण्ड–भंग
उनकी ऐसी कातर वाणी सुनकर मुकुन्द दत्त आदि तो कीर्तन करने से बंद हो गये, किन्तु भला प्रभु कब बंद होने वाले थे। वे उसी प्रकार कीर्तन करते ही रहे और अन्य साथियों को भी कीर्तन करने के लिये उत्साहित करने लगे। प्रभु के उत्साहपूर्ण वाक्यों को सुनकर फिर सब-के-सब कीर्तन करने लगे। धन्य हैं, ऐसे श्रीकृष्ण प्रेम को, जिसके आनन्द में प्राणो तक की भी परवा न हो। अमृत के सागर में डूबने का भय कैसा? श्रीकृष्ण नाम तो जीवों को आधि-व्याधि तथा सम्पूर्ण भयों से मुक्त करने वाला हैं। उसके सामने मगर, घड़ियाल, भेड़िया तथा डाकुओं का भय कैसा ? राम-नाम के प्रभाव से तो विष भी अमृत बन जाता है। हिंसक जन्तु भी अपना स्वभाव छोड़कर प्रेम करने लगते हैं। प्रभु को इस प्रकार कीर्तन में संलग्न देखकर नाविक समझ गये कि ये कोई असाधारण महापुरुष है, इन्हे कीर्तन से रोकना व्यर्थ हैं,जहाँ पर ये विराजमान हैं, वहाँ किसी प्रकार का अमंगल हो ही नहीं सकता। यही सोचकर वे चूप हो गये। फिर उन्होंने प्रभु से कीर्तन करने के लिये मना नहीं किया। प्रभु उसी प्रकार अपने अश्रुओं की धाराओं को गंगा जी के प्रवाह में मिलाते हुए कीर्तन करते रहे। उसी कीर्तन के समारोह में नाव प्रयाग घाट पर आ लगी। प्रभु ने अपने साथियों के सहित नाव से उतरकर प्रयागघाट पर स्नान किया और फिर आगे बढ़ें। अब उन्होंने गौड़-देश को छोड़कर उड़ीसा-देश की सीमा में प्रवेश किया। आज प्रभु ने अपने साथियों से कहा- ‘तुम लोग सब यहीं बैठो, आज मैं अकेला ही भिक्षा करने जाऊँगा।’ प्रभु जी की बात को टाल ही कौन सकता था ? सबने इस बात को स्वीकार किया। प्रभु अपने रंगे वस्त्र को झोली बनाकर भिक्षा मांगने के लिये चले। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि उड़ीसा तथा बंगाल में बने-बनाये अन्न की भिक्षा देने की परिपाटी नहीं है। अब तो कुछ-कुछ लोग सीखने भी लगे है। भट्टाचार्य ब्राह्मण संन्यासी को बने-बनाये सिद्ध अन्न की भिक्षा देने लगे हैं। पहले तो लोग सुखा ही अन्न भिक्षा में देते थे। ग्रामवासी स्त्री-पुरुष प्रभु की झोली में चावल दाल और चिउरा आदि डालने लगे। प्रभु जिसके भी द्वार पर जाकर ‘नारायण-हरि’ कहकर आवाज लगाते वही बहुत-सा अन्न लेकर उन्हें देने के लिये दौड़ा आता। उनके अद्भुत रुप-लावण्य को देखकर सभी स्त्री-पुरुष चकित रह जाते और एकटक भाव से प्रभु को ही निहारते रहते। उनके चेहरे में इतना अधिक आकर्षण था कि जो भी एक बार उनके दर्शन कर लेता वहीं अपना सर्वस्व प्रभु के उुपर निछावर कर देने की इच्छा करता। जिसके घर में जो भी उत्तम पदार्थ होता, वही लाकर प्रभु की झोली में डाल देता। इस प्रकार थोड़ी ही देर में प्रभु की झोली भर गयी। विवश होकर कई आदमियों की भिक्षा लौटानी पड़ी। इससे प्रभु को भी कुछ दु:ख-सा हुआ। वे अपनी भरी हुई झोली को लेकर बाहर बैठे हुए अपने भक्तों के समीप आये। नित्यानन्द जी भरी हुर्इ झोली को देखकर हंसने लगे। अन्त में जगदानन्दजी ने प्रभु से झोली लेकर भोजन बनाया और सभी ने साथ बैठकर बड़े ही आनन्द के सहित उस महाप्रसाद को पाया। |