श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी89. पुरी के पथ में
प्रभु माता को देखते हुए भी संकोचवश उनसे आँखे नहीं मिलाते थे। बूढ़े अद्वैताचार्य भी जोरों से बच्चों की भाँति रुदन कर रहे थे। इस प्रकार के रुदन को सुनकर प्रभु अधीर हो उठे। वे चलते-चलते ठहर गये और आँखों से आँसू बहाते हुए अद्वैताचार्य जी से कहने लगे- आचार्यदेव ! इतने वृद्ध होकर जब आप ही इस प्रकार बालकों की तरह रुदन कर रहे हैं तो फिर भक्तों को और कौन धैर्य बँधावेगा? आपका मुझ पर सदा पुत्र की भाँति स्नेह रहा है। यह मैं जानता हूँ कि मेरे वियोग से आपको अपार दु:ख हुआ है, किन्तु आप तो सर्वसमर्थ हैं। आपके साहस के सामने मेरा वियोगजन्य दु:ख कुछ भी नहीं है। आप अब मेरे कहने से शान्तिपुर लौट जायँ। आप यदि मेरे साथ चलेंगे तो यहाँ माता की तथा भक्तों की देख-रेख कौन करेगा। आप मेरे काम के लिये शान्तिपुर में रह जाइये। मैं माता को तथा भक्तों को आप के हाथ में सौंपता हूँ। आप ही सदा से इनके रक्षक रहे हैं और अब भी इन सबका भार आपके ही ऊपर है। यह करुणापूर्ण दृश्य अब और अधिक मुझसे नहीं देखा जाता। अब आप इन सभी भक्तों के सहित लौट जायँ।' आचार्य ने प्रभु की आज्ञा का पालन किया। वे वहीं ठहर गये। उन्होंने भूमि में लोटकर प्रभु के लिये प्रणाम किया। प्रभु ने उनकी चरण-धूली अपने मस्तक पर चढ़ायी और माता के चरणों की वन्दना करते हुए वे उन सबको पृथ्वी पर ही पड़ा छोड़कर जल्दी से आगे के लिये दौड़ गये। नित्यानन्द, दामोदर, जगदानन्द और मुकुन्ददत्त भी सभी लोगों से विदा होकर प्रभु के पीछे-पीछे दोड़ने लगे और सब लोग वहीं पड़े-के-पड़े ही रह गये। जब भक्तों ने देखा कि प्रभु तो हमें छोड़कर चले ही गये तब उन्होंने और अधिक प्रभु का पीछा नहीं किया। वे खड़े होकर गंगा जी की ओर देखते रहे। |