श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी87. शचीमाता का संन्यासी पुत्र के प्रति मातृ-स्नेह
नवद्वीप तथा शान्तिपुर के सभी भक्तों की यह इच्छा होती कि प्रभु को एक-एक दिन हम भी भिक्षा करावें, किन्तु माता उन सबसे दीनतापूर्वक कहती- ‘तुम सब मुझ अभागिनी के ऊपर कृपा करो। तुम सब तो जहाँ भी निमाई रहेगा वहीं जाकर इसे भिक्षा करा आओगे। मुझ दु:खिनी को अब न जाने कब ऐसा सौभाग्य प्राप्त होगा। मेरे लिये तो यही समय है। मैं तुम सभी से इस बात की भीख मांगती हूँ कि जब तक निमाई शान्तिपुर रहे तब तक वह मेरे ही हाथ का बना हुआ भोजन पावे। अब उसके ऊपर मेरे ही समान तुम सब लोगो का अधिकार है; किंतु मेरी ऐसी ही इच्छा है?’ माता की ऐसी बात सुनकर सभी चुप हो जाते और फिर प्रभु के निमन्त्रण के लिये आग्रह न करते। इस प्रकार अपनी जननी के हाथ की भिक्षा को पाते हुए और सभी भक्तों के आनन्द को बढा़ते हुए श्रीअद्वैताचार्य के आग्रह से प्रभु शान्तिपुर में निवास करने लगे। प्रभु शान्तिपुर में ठहरे हुए हैं, इस बात का समाचार सुनकर लोग बहुत-बहुत दूर से प्रभु के दर्शनों को आया करते। इस प्रकार शान्तिपुर में प्रभु के रहने से एक प्रकार का मेला-सा ही लग गया। प्रेमावतार चैतन्यदेव मातृस्नेह और अद्वैताचार्य के प्रेमाग्रह के ही कारण दस दिनों तक शान्तिपुर में ठहरे रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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