श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी86. माताको संन्यासी पुत्र के दर्शन
आचार्यरत्न ने धीरे से कहा- ‘इस पास के नीम के समीप ही उनकी पालकी रखी हुई है।’ इस बात को सुनते ही प्रभु जल्दी से पीछे लौट पड़े। अद्वैताचार्य तथा अन्य भक्त भी प्रभु के पीछे-पीछे चले। दूर से ही पालकी में बैठी हुई माता को देखकर प्रभु ने भूमि में लोटकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। पुत्रवियोग से दु:खी हुई वृद्धा माता ने पालकी में से उतरकर अपने संन्यासी पुत्र का आलिंगन किया और उनके केश शून्य मस्तक पर हाथ फिराती हुई कहने लगी- ‘निमाई! संन्यासी होकर तू मुझे प्रणाम करके और अधिक पाप का भागी क्यों बनाता है? तैंने जो किया सो तो अच्छा ही किया! अब तू मेरे घर रहने योग्य तो रहा ही नहीं, किन्तु बेटा! इस अपनी दु:खिनी बूढ़ी माता को एकदम भूल मत जाना। तू भी विश्वरूप की तरह निष्ठुर मत बन जाना। उसने तो जिस दिन से घर छोड़ा है, आज तक सूरत ही नहीं दिखायी। तू ऐसा मत करना।’ इतना कहते-कहते माता अधीर होकर गिर पड़ी। प्रभु भी अचेत होकर माता की गोदी में पड़ गये और छोटे बालक की भाँति फूट-फूटकर रोने लगे। रोते-रोते वे कहने लगे ‘माँ! मैं चाहे कैसा भी संन्यासी क्यों न हो जाऊँ, तुम मेरी माता हो और मैं तुम्हारा सदा पुत्र ही बना रहूँगा। जननी! मैं तुम्हारे ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकता। माता! मैंने जल्दी में बिना सोचे-समझे ही संन्यास ग्रहण कर लिया है, फिर भी मैं तुमसे पृथक नहीं होऊँगा, जहाँ तुम्हारी आज्ञा होगी, वहीं रहूँगा।’ प्रभु के ऐसे सान्त्वनापूर्ण प्रेम-वचनों को सुनकर माता को कुछ संतोष हुआ, उन्होंने अपने अंचल से प्रभु के अश्रुओं को पोंछा और उन्हें छोटे बच्चे की भाँति पुचकारने लगीं। अद्वैताचार्य ने प्रभु से घर पर चलने की प्रार्थना की। प्रभु खडे़ हो गये और कहार पालकी उठाकर आचार्य के घर की ओर चलने लगे। महाप्रभु पालकी के पीछे-पीछे चलने लगे। उनके पीछे बहुत-से भक्त जोरों से संकीर्तन करते हुए चल रहे थे। द्वार पर पहुँचकर आचार्यदेव की धर्मपत्नी सीता देवी ने आगे बढ़कर शचीमाता को पालकी से नीचे उतारा और अपने साथ उन्हें भीतर घर में ले गयीं। भक्तवृन्द बाहर खडे़ होकर संकीर्तन करने लगे। |