श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी85. शान्तिपुर में अद्वैताचार्य के घर
गंगा-किनारे पहुँचकर दूर से ही आचार्य ने देखा बहुत-से भक्तों से घिरे हुए हाथ में दण्ड-कमण्डलु धारण किये गेरुए रंग के वस्त्र पहने प्रभु जल्दी-जल्दी शान्तिपुर की ओर आ रहे हैं। दूर से देखते ही आचार्य ने पृथ्वी पर लोटकर साष्टांग प्रणाम किया। जल्दी से आकर प्रभु भी दण्ड-कमण्डलु के सहित आचार्य के चरणों में गिर पड़े। उनके चरणों में हरिदास जी पड़े और इसी प्रकार एक-दूसरे के चरणों को पकड़कर भक्त जोरों के सहित क्रन्दन करने लगे। घाट पर के स्त्री-पुरुष इस प्रेमदृश्य को देखकर आश्चर्यचकित हो गये। सभी इस अपूर्व प्रेम की प्रशंसा करने लगे। बहुत देर के अनन्तर प्रभु स्वयं उठे। उन्होंने अद्वैताचार्य को अपने हाथों से उठाया और अपने चरणों के समीप पड़े हुए आचार्य अद्वैत के पुत्र अच्युत को प्रभु ने गोदी में उठा लिया और अपने रँगे वस्त्र से उसके शरीर की धूलि पोंछते हुए कहने लगे- ‘आचार्य तो हमारे पिता हैं, तुम्हारे भी वे पिता हैं क्या? तब तो हम-तुम दोनों भाई-भाई ही हुए? क्यों ठीक है न? बताओ, हम तुम्हारे भाई नहीं हैं? हमें पहचानते हो?’ बालक अच्युत ने उत्तर दिया- ‘प्रभो! आप चराचर जीवों के पिता हैं। आपके पिता कौन हो सकते हैं? आप तो वैसे ही मुझसे हंसी कर रहे हैं।’ बालक के ऐसे अद्भुत उत्तर को सुनकर अद्वैताचार्य आदि सभी भक्त प्रसन्न होकर उस बालक की बुद्धि की सराहना करने लगे। प्रभु ने भी कई बार अच्युत के मुंह को चूमा और आप सभी भक्तों के सहित आचार्य के घर पहुँचे। घर पहुँचने पर आचार्य ने प्रभु के चरणों को धोया और अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, चन्दन, पुष्पमाला आदि पूजन की सामग्रियों से विधिवत उनकी पूजा की। फिर प्रभु के पादोदाक का स्वयं पान किया, भक्तों को बांटा और अपने सम्पुर्ण घर में उसे छिड़का। प्रभु ने पधारने के कारण आचार्य के आनन्द का ठिकाना नहीं रहा, वे बार-बार अपने सौभाग्य की सराहना करने लगे। |