श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी84. राढ़-देश में उन्मत्त-भ्रमण
प्रभु ने स्नेह के साथ बहुत ही सरलतापूर्वक कहा- ‘न’ यह ठीक नहीं है। आज आपको घर छोडे़ तीन-चार दिन होते हैं। घर पर बाल-बच्चे न जाने क्या सोच रहे होंगे, आप अब जायँ ही।’ अश्रु-विमोचन करते हुए प्रभु के पैरों को पकड़कर आचार्य कहने लगे- ‘प्रभो! मुझे भुलाइयेगा नहीं। नवद्वीप के नर-नारियों को भी बड़ा सन्ताप है, उन्हें भी अपने दर्शनों से सुखी बनाइयेगा। मैं ऐसा भाग्यहीन निकला कि प्रभु की कुछ भी सेवा न कर सका। नवद्वीप में भी मैं सदा सेवा से वंचित ही रहा।’ अब तक प्रभु अपने अश्रुओं को बलपूर्वक रोके हुए थे। अब उनसे नहीं रहा गया। वे जोरों से रोते हुए कहने लगे- ‘आचार्यदेव! आप सदा से पिता की भाँति मेरी देख-रेख करते रहे हैं। मुझे अपने पिता का ठीक-ठीक होश नहीं। आपके ही द्वारा मैं सदा पितृ-सुख का अनुभव करता रहा हूँ। आप मेरे पितृतुल्य क्या पिता ही हैं। आप तो सदा ही मुझ पर सगे पुत्र की भाँति वात्सल्य-स्नेह रखते रहे हैं, किंतु मैं ही ऐसा भाग्यहीन निकला कि आपकी कुछ भी सेवा न कर सका। अब ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मैं शीघ्र-से-शीघ्र अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्ण को पा सकूं। आप अब जायँ और अधिक देरी न करें।’ यह कहकर प्रभु ने अपने हाथों से भूमि में पड़े हुए आचार्य को उठाया और उनका गाढा़लिंगन करते हुए प्रभु कहने लगे- ‘आप जाइये और माता तथा मेरे दु:ख से दु:खी हुए सभी भक्तों को सान्त्वना प्रदान कीजिये। माता से कह दीजियेगा, मैं शीघ्र ही उनके चरणों के दर्शन करूँगा।’ प्रभु की बात सुनकर सुखी मन से आचार्यरत्न ने प्रभु की आज्ञा का शिरोधार्य किया। और वे नवद्वीप के लिये लौट गये और लोगों ने बहुत आग्रह करने पर भी लौटना स्वीकार नहीं किया। सबसे आगे भारती जी चल रहे थे, उनके पीछे दण्ड-कमण्डलु धारण किये हुए महाप्रभु प्रेम में विभोर हुए नृत्य करते हुए जा रहे थे। उनके पीछे नित्यानन्द, गदाधर और मुकुन्ददत्त थे। |