श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
81. गौरहरि का संन्यास के लिये आग्रह
अच्छा, जैसी नारायण की इच्छा।’ यह सोचकर उन्होंने प्रभु को आवाज दी- ‘पण्डित! पण्डित! लौट आओ। जैसा तुम कहोगे वैसा ही किया जायगा। तुम्हारी बात को टालने की किसमें सामर्थ्य है।’ इतना सुनते ही प्रभु उसी प्रकार जल्दी से लौट आये। आकर उन्होंने भारती जी के चरणों में फिर से प्रणाम किया और मुकुन्द के पदों को सुनकर प्रभु श्रीकृष्ण–प्रेम में विभोर होकर रुदन करने लगे और मुकुन्ददत्त से बार-बार कहने लगे- ‘हां, गाओ, गाओ! फिर क्या हुआ! अहा, राधिका जी का वह अनुराग धन्य है।’ इस प्रकार गायन के पश्चात संकीर्तन आरम्भ हुआ। गांव के सैकड़ों मनुष्य आ-आकर संकीर्तन में सम्मिलित होने लगे। गांव से मनुष्य ढोल-करताल तथा झाँझ-मजीरा आदि बहुत-से वाद्यों को साथ ले आये थे। एक साथ बहुत-से वाद्य बजने लगे और सभी मिलकर-
हरि हरये नम: कृष्ण यादवाय नम:।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।
-इस पद का कीर्तन करने लगे। प्रभु भावावेश में आकर संकीर्तन के मध्य में दोनों हाथ ऊपर उठाकर नृत्य करने लगे। सभी ग्रामवासी प्रभु के उस अद्भुत नृत्य को देखकर मन्त्रमुगध-से हो गये। भारती जी के शरीर में भी प्रेम के सभी सात्त्विक भावों का उदय होने लगा और वे भी आत्म-विस्मृत होकर पागल की भाँति संकीर्तन में नृत्य करने लगे। तब उन्हें प्रभु की महिमा का पता चला। वे प्रेम में छक-से गये। इस प्रकार सम्पूर्ण रात्रि इसी प्रकार कथा-कीर्तन और भगवत-चर्चा में ही व्यतीत हुई।
|