श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी9. प्रादुर्भाव
इस प्रकार ग्रहों का फल सुनकर मिश्र जी के आनन्द की और भी अधिक वृद्धि हुई। उस समय उन्हें अपनी निर्धनता पर कुछ खेद हुआ। उनका हृदय कह रहा था कि ‘इस समय यदि मेरे पास कुछ होता तो इसी समय सर्वस्व दान कर डालता’ फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार उन्होंने अन्न-वस्त्र का दान अभ्यागत तथा ब्राह्मणों के लिये दिया। इस प्रकार वह रात्रि आनन्द तथा उत्साह में ही व्यतीत हुई। दूसरे दिन धूलेड़ी थी। उस दिन सभी परस्पर में मिलकर धूलि-कीच तथा अबीर-गुलाल और रंग से होली खेलते हैं। बस, उसी दिन कट्टर-से-कट्टर पण्डित भी स्पर्शास्पर्श का भेद नहीं मानते। सभी परस्पर में मिलते हैं। उस दिन भक्तों में महान आनन्द रहा। एक-दूसरे पर उत्साह के साथ रंग-गुलाल तथा दधि-हल्दी डाल रहे थे। मानो आज नन्दोत्सव मनाया जा रहा हो। भक्तों ने अनुभव किया कि आकाश में देवता उनकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता मिलाकर जयघोष कर रहे हैं और भक्तों को अभयदान देते हुए आदेश कर रहे हैं कि अब भय की कोई बात नहीं, तुम्हारे दुर्दिन अब चले गये। नवद्वीप में ही नहीं सम्पूर्ण देश में भक्ति-भागीरथी की एक ऐसी मनोरम बाढ़ आवेगी कि जिसके द्वारा सभी जीव पावन बन जायँगे और चारों ओर ‘हरि बोल, हरि बोल’ यही सुमधुर ध्वनि सुनायी पड़ेगी। |