श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी76. भक्तवृन्द और गौरहरि
भक्तों द्वारा आंवले के जल से धोये हुए और सुगन्धित तैलों से तर हुए ये बाल ही ही भूले-भट के अज्ञानी पुरुषों के हृदय में विद्वेष की अग्नि भभकाते हैं। मैं इन घुंघराले बालों को नष्ट कर दूंगा। शिखासूत्र का त्याग करके मै। वीतराग संन्यासी बनूँगा। मेरा हृदय अब संन्यासी होने के लिये पड़प रहा है। मुझे वर्तमान दशा में शांति नहीं, सच्चा सुख नहीं। मैं अब पूर्ण शांति और सच्चे सुख की खोज में संन्यासी बनकर द्वार-द्वार पर भटकूंगा। मैं अपरिग्रही संन्यासी बनकर सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करूँगा। श्रीपाद! तुम स्वयं त्यागी हो, मेरे पूज्य हो, बड़े हो, मेरे इस काम में रोडे़ मत अटकाना।’ प्रभु की ऐसी बात सुनते ही नित्यानन्द जी अधीर हो गये। उन्हें शरीर का भी होश नहीं रहा। प्रेम के कारण उनके नेत्रों में से अश्रु बहने लगे। उनका गला भर आया। रुँधे हुए कण्ठ से उन्होंने रोते-रोते कहा- प्रभो! आप सर्वसमर्थ हैं, सब कुछ कर सकते हैं। मेरी क्या शक्ति है, जो आपके काम में रोडे़ अटका सकूं? किंतु प्रभो! ये भक्त आपके बिना कैसे जीवित रह सकेंगे? हाय! विष्णुप्रिया की क्या दशा होगी! बूढ़ी माता जीवित न रहेंगी। आपके पीछे वह प्राणों का परित्याग कर देंगी। प्रभो! उनकी अन्तिम अभिलाषा भी पूर्ण न हो सकेगी। अपने प्रिय पुत्र से उन्हें अपने शरीर के दाह-कर्म का भी सौभाग्य प्राप्त न हो सकेगा। प्रभो! निश्चय समझिये, माता आपके बिना जीवित न रहेंगी।’ प्रभु ने कुछ गम्भीरता के स्वर में नित्यानंद जी से कहा- ‘श्रीपाद! आप तो ज्ञानी हैं, सब कुछ समझते हैं। सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों के अधीन हैं। जितने दिनों तक जिसका जिसके साथ संबंध होता है, वह उतने ही दिनों तक उसके साथ रह सकता है। सभी अपने-अपने प्रारब्ध कर्मों से विवश हैं।’ प्रभु की बातें सुनकर नित्यानंद जी चुप रहे। प्रभु उठकर मुकुंद के समीप चले आये। मुकुंददत्त का गला बड़ा ही सुरीला था। प्रभु को उनके पद बहुत पसंद थे। वे बहुधा मुकुन्ददत्त से भक्ति के अपूर्व-अपूर्व पद गवा-गवाकर अपने मन को संतुष्ट किया करते थे। प्रभु को अपने यहाँ आते हुए देखकर मुकुन्द ने जल्दी से उठकर प्रभु की चरण-वंदना की और बैठने के लिये सुंदर आसन दिया। प्रभु ने बैठते ही मुकुंददत्त से कोई पद गाने के लिये कहा। मुकुंद बड़े स्वर के साथ गाने लगे। मुकुंद के पद को सुनकर प्रभु प्रेम में गद्गद हो उठे। फिर प्रेम से मुकुन्दत्त का आलिंगन करते हुए बोले- ‘मुकुन्द! अब देखें तुम्हारे पद कब सुनने को मिलेंगे?’ आश्चर्यचकित होकर सम्भ्रम के सहित मुकुन्द कहने लगे-‘क्यों-क्यों प्रभों! मैं तो आपका सेवक हूँ, जब भी आज्ञा होगी तभी गाऊँगा!’ |