श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी74. नवानुराग और गोपी-भाव
कुछ ईर्ष्या रखने वाले खल पुरुष अपनी छिपी हुई ईर्ष्या को प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘ये दुष्ट और कोई भला काम थोडे़ ही करेंगे? बस, साधु-ब्राह्मणों पर प्रहार करना ही तो इन्होंने सीखा है। रात्रि में तो छिप-छिपकर न जाने क्या-क्या करते रहते हैं और दिन में साधु-ब्राह्मणों को त्रास पहुँचाते हैं। यही इनकी भक्ति है। पण्डित जी! तुम्हारे हाथ नहीं है क्या? उनके साथ दस-बीस बुद्धिहीन भक्त हैं तो तुम्हारे कहने में हजारों विद्यार्थी हैं। एक बार इन सबकी अच्छी तरह से मरम्मत क्यों नहीं करा देते। बस, तब ये सब कीर्तन-फीर्तन भूल जायंगे। जब तक इनकी नसें ढीली न होंगी, तब तक ये होश में गुस्से में दुर्वासा बने हुए उन विद्याभिमानी छात्र महाशय ने गर्जकर कहा- ‘मेरे कहने में हजारों छात्र हैं। मेरे आँख के इशारे से ही इन भक्तों में से किसी की भी हड्डी तक देखने को न मिलेगी। आप लोग कल ही देंखे, इसका परिणाम क्या होता है। कल बच्चुओं को मालूम पड़ जायगा कि ब्राह्मण के ऊपर प्रहार करने वाले की क्या दशा होती है?’ इस प्रकार वे महाशय बड़बड़ाते हुए अपनी छात्र-मण्डली में पहुँचे। छात्र तो पहले से ही महाप्रभु के उत्कर्ष को न सह सकने के कारण उनसे जले-भुने बैठे थे। उनके लिये महाप्रभुका इतना बढ़ता हुआ यश असहनीय था। उनके हृदय में महाप्रभु की देशव्यापी कीर्ति के कारण डाह उत्पन्न हो गयी थी। अब इतने बड़े योग्य विद्यार्थी के ऊपर प्रहार की बात सुनकर प्राय: दुष्ट स्वभाव के बहुत-से छात्र एकदम उत्तेजित हो उठे और उसी समय महाप्रभु के ऊपर प्रहार करने जाने के लिये उद्यत हो गये। कुछ समझदार छात्रों ने कहा- ‘भाई! इतनी जल्दी करने की कौन-सी बात है, इन पर प्रहार भी नहीं हुआ है। दो-चार दिन और देख लो। यदि उनका सचमुच में ऐसा ही व्यवहार रहा और अब से आगे किसी अन्य छात्र पर इस प्रकार प्रहार किया तब तुम लोगों को प्रहार का उत्तर प्रहार से देना चाहिये। अभी इतनी शीघ्रता नहीं करनी चाहिये।’ इस प्रकार उस समय तो छात्र शान्त हो गये। किंतु उनके प्रभु के प्रति विद्वेष के भाव बढ़ते ही गये। कुछ दुष्टबुद्धि के मायापुर-निवासी ब्राह्मण भी छात्रों के साथ मिल गये। इस प्रकार प्रभु के विरुद्ध एक प्रकार का बड़ा भारी दल ही बन गया। भावावेश के अनन्तर प्रभु को सभी बातें मालूम हुईं। इससे उन्हें अपार दु:ख हुआ। वे घर-बार तथा इष्ट-मित्र और अपने साथी भक्तो से पहले से ही उदासीन थे। इस घटना से उनकी उदासी और भी अधिक बढ़ गयी। अब उन्हें संकीर्तन के कारण फैली हुई अपनी देशव्यापी कीर्ति काटने के लिये दौड़ती हुई-सी दिखायी देने लगी। उन्हें घर-बार, कुटुम्ब-परिवार तथा धर्मपत्नी और माता से एकदम विराग हो गया। उनका मन-मधुप अब घिरी हुई सुगन्धित वाटिका को छोड़कर खुली वायु में स्वच्छन्दता के साथ जंगलों की कंटीली झाड़ियों के ऊपर विचरण करने के लिये उत्सुकता प्रकट करने लगा। वे जीवों के कल्याण के निमित्त घर-बार को छोड़कर संन्यासी बनने की बात सोचने लगे। |