श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी73. भक्तों की लीलाएँ
इसी प्रकार श्रीवास पण्डित के घर एक दर्जी रहता था। नित्यप्रति कीर्तन सुनते-सुनते उसकी कीर्तन में तथा महाप्रभु के चरणों में प्रगाढ़ भक्ति हो गयी। प्रभु जब भी उधर से निकलते तभी वह भक्ति-भावसहित उन्हें प्रणाम करता। एक दिन उसे भी प्रभु के दिव्यरूप के दर्शन हुए। उस अलौकिक रूप के दर्शन करके वह मुसलमान दर्जी कृतकृत्य हो गया और पागलों की तरह बाजार में कई दिन तक ‘देखा है’ ‘देखा है’ कहकर चिल्लाता फिरा। इस प्रकार प्रभु अपने अन्तरंग भक्तों में भाँति-भाँति की प्रेम-लीलाएँ करते रहे। उनके शरणापन्न भक्तों को ही उनके ऐसे-ऐसे रूपों के दर्शन होते थे। अन्य साधारण लोगों की दृष्टि में तो वे निमाई पण्डित ही थे। बहुतों की दृष्टि में तो ढोंगी भी थे। यद्यपि उनका न तो किसी से विशेष राग था, न द्वेष, तो भी जो एकदम उन्हीं के बन जाते, उन्हें उनके दिव्य-दिव्य रूपों के दर्शन होने लगते। भगवान के सम्बन्ध में भी यही बात कही जाती है कि भगवान के लिये सभी समान हैं, प्राणी मात्र पर वे कृपा करते हैं, किंतु जो सबका आश्रय त्यागकर एकदम उन्हीं का पल्ला पकड़ लेते हैं, उनकी वे सम्पुर्ण मन:कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं। जैसे कल्पवृक्ष सबके लिये समान रूप से सुख देने वाला होता है, किंतु मनोवांछित फल तो वह उन्हीं लोगों को प्रदान करता है, जो उसके नीचे बैठकर उन फलों का चिन्तन करते हैं। चाहे उसके निकट ही घर बनाकर क्यों न रहो, जब तक उसकी छत्र-छाया में प्रवेश न करोगे, जब तक उसके मूल में बैठकर चिन्तन न करोगे, तब तक अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। प्रभु के पाद-पद्मों का आश्रय लेने पर ही उसकी कृपा के हम अधिकारी बन सकते हैं।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न तस्य कश्चिद् दयित: सुहृत्तमो न चाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा। तथापि भक्तान् भजते यथा तथा सुरद्रुमो यद्वदुपाश्रितोऽर्थद:।। श्रीमद्भा. 10/38/22