श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी71. नदिया में प्रेम-प्रवाह और क़ाज़ी का अत्याचार
हरि हरये नम: कृष्ण यादवाय नम:। इस मन्त्र को या और किसी मन्त्र को जिसमें भगवान के नामों का ही कीर्तन हो, गाते गये, दस-पांच अपने साथी इकट्ठे कर लिये और सभी मिलकर नाम-संकीर्तन करने लगे। तुम लोग नियमपूर्वक महीने भर तक करो तो सही, फिर देखना कितना आनन्द आता है।’ लोग प्रभु के मुख से भगवन्नाम-माहात्म्य और कीर्तन की महिमा सुनते और वहीं उन्हें दिखा-दिखाकर संकीर्तन करने लगते। जहाँ वे भूल करते प्रभु उन्हें फौरन बता देते। इस प्रकार उनसे जो भी पूछने आते, उन सभी को भगवन्नाम संकीर्तन का ही उपदेश करते। लोग महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके अपने-अपने घरों को चले आते और दूसरे ही दिन से संकीर्तन आरम्भ कर देते। पहले तो लोग ताली बजा-बजाकर ही कीर्तन करते थे, किंतु ज्यों-ज्यों उन्हें आनन्द आने लगा, त्यों-ही-त्यों उनके संकीर्तन के साथ ढोल-करताल तथा झाँझ-मृदंग आदि वाद्यों का ही समावेश होने लगा। एक को कीर्तन करते देखकर दूसरे को भी उत्साह होने लगा और उसने भी दस-पांच लोगों को इकट्ठा करके अपनी एक छोटी संकीर्तन-मण्डली बना ली और दोनों समय नियम से संकीर्तन करने लगे। इस प्रकार प्रत्येक मुहल्ले में बहुत-सी संकीर्तन मण्डलियां स्थापित हो गयीं। अच्छे-अच्छे घरों के लोग संध्या-समय अपने सभी परिवार वालों को साथ लेकर संकीर्तन करते। जिसमें स्त्री-पुरुष, छोटे-बडे़ सभी सम्मिलित होते। भक्त सदा आनन्द में छके-से रहते। परस्पर एक-दूसरे का आलिंगन करते। दो भक्त जहाँ भी रास्ते में मिलते, वहीं एक-दूसरेसे लिपट जाते। कोई दूसरे को साष्टांग प्रणाम ही करते, वह जल्दी से उनकी चरण-रज लेने को दौड़ता। कभी दस-बीस भक्त मिलकर संकीर्तन के पदों का ही गायन करने लगे। कोई बाजार में सबके सामने नृत्य करते ही निकलते। इस प्रकार भक्तिरूपी नदिया में सदा प्रेम की तरंगें ही उठती रहतीं। रात्रि-दिन शंख, घड़ियाल, तुरही, ढोल, करताल, झांझ, मृदंग तथा अन्यान्य प्रकार के वाद्यों से सम्पूर्ण नवद्वीप नगर गूंजता ही रहता। महाप्रभु भक्तों को साथ लेकर रात्रिभर संकीर्तन ही करते रहते। प्रात:काल घंटे-दो-घंटे के लिये सोते। उठते ही भक्तों को साथ लेकर गंगा-स्नान करने के लिये चले जाते। भक्तों को तो लोगों ने सदा से ही ‘बावले’ की उपाधि दे रखी है। इन बावले भक्तों का स्नान भी विचित्र प्रकार का होता। ये लोग सदा अफीमची की तरह पिनक में ही बने रहते। मद्यप के समान नशे में ही झूमते रहते और पागलों के समान ही बड़बड़ाया करते। स्नान करते-करते किसी ने किसी की धोती ही फेंक दी है, तो कोई किसी के ऊपर जल ही उलीच रहा है। कोई तैर कर उस पार जा रहा है, तो कोई प्रवाह के विरुद्ध ही तैरने का दुस्साहस कर रहा है। इस प्रकार घंटों में इनका स्नान समाप्त होता। तब प्रभु सब भक्तों के सहित घर आते। |