श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी70. भगवत्-भजन में बाधक भाव
नामापराधी चाहे कोई भी हो प्रभु उसी को यथोचित दण्ड देते और अधिकारी हुआ तो उसका प्रायश्चित्त भी बताते थे। यहाँ तक कि अपनी श्रीशची देवी के अपराध को भी उन्होंने क्षमा नहीं किया और जब तक जिनका अपराध हुआ था, उनसे क्षमा नहीं करा ली तब तक उन पर कृपा ही नहीं की। बात यह थी कि महाप्रभु के ज्येष्ठ भ्राता विश्वरूपी अद्वैताचार्य जी के ही पास पढ़ा करते थे। वे आचार्य को ही अपना सर्वस्व समझते और सदा उनके ही समीप बने रहते थे, केवल रोटी खाने भर के लिये घर जाते थे। अद्वैताचार्य उन्हें ‘योगवासिष्ठ’ पढ़ाया करते थे। वे बाल्याकाल से ही सुशील, सदाचारी, मेधावी तथा संसारी विषयों से एकदम विरक्त थे। योगवासिष्ठ के श्रवणमात्र से उनके हृदय का छिपा हुआ त्याग-वैराग्य एक दम उभड़ पड़ा और वे सर्वस्व त्यागकर परिव्राजक बन गये। अपने सर्वगुणसम्पन्न प्रिय पुत्र को असमय में गृह त्यागकर सदा के लिये चले जाने के कारण माता को अपार दु:ख हुआ और उसने विश्वरूप के वैराग्य का मूल कारण अद्वैताचार्य को ही समझा। वात्सल्य प्रेम के कारण भूली हूई भोली-भाली माता ने सोचा- ‘अद्वैताचार्य ने ही ज्ञान की पोथी पढ़ा-पढ़ाकर मेरे प्राण प्यारे पुत्र को परिव्राजक बना दिया।’ जब माता बहुत रुदन करने लगी और अद्वैताचार्य जी के समीप भाँति-भाँति का विलाप करने लगी, तब अद्वैताचार्य जी ने यों ही बातों-ही-बातों में समझाते हुए कह दिया था- ‘शोक करने की क्या बात है। विश्वरूप ने कोई बुरा काम थोड़े ही किया है, उसने तो अपने इस शुभ काम में अपने कुल की आगे-पीछे की 21 पीढ़ियों को तार दिया। हम तो समझते हैं पढ़ना-लिखना उसी का सार्थक हुआ। जिन्हें पोथी पढ़ लेने पर भी ज्ञान नहीं होता, वे पठित-मुर्ख हैं। ऐसे पुस्तक के कीड़े बने हुए पुरुष पुस्तक पढ़ लेने पर भी उसके असली मर्म से वंचित ही रहते हैं।’ बेचारी माता के तो कलेजे से टुकड़ा निकल गया था, उसे ऐसे समय में ये इतनी ऊँची ज्ञान की बातें कैसे प्रिय लग सकती थीं। इन बातों से उसके मन में इन्हीं भावों का दृढ़ निश्चय हो गया कि विश्वरूप के गृहत्याग में आचार्य की जरूर सम्मति है। वह आचार्य से अत्यधिक स्नेह करता था, इनकी आज्ञा के बिना वह जा ही नहीं सकता। इन भावों को माता ने मन में ही छिपाये रखा। किसी के सामने उन्हें प्रकट नहीं किया। |