श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी68. श्रीकृष्ण–लीलाभिनय
‘उस अनंगवर्धन करने वाले मुरली के मनोहर गान को सुनकर जिनके मन को श्रीकृष्ण ने अपनी ओर खींच लिया है, ऐसी उन गोकुल की गोपियों ने सापत्न्य-भाव से अपने अनेकों उद्योग को एक-दूसरी पर प्रकट नहीं किया। वे श्रीकृष्ण की उस जगन्मोहन तान में अधीन हुई जिधर से वह ध्वनि सुनायी पड़ी थी, उसी को लक्ष्य करके जैसे बैठी हुई थीं वैसे ही उठकर चल दीं। उस समय जाने की शीघ्रता के कारण उनके कानों के हिलते हुए कमनीय कुण्डल बड़े ही सुंदर मालूम पड़ते थे।‘ जो गौ दुह रही थी वह दुहनी को वहीं पटककर चल दी, जिन्होंने दुहने के लिये बछड़ा छोड़ दिया था, उन्हें उसे बांधन तक की भी सुध न रही। जो दूध औटा रही थीं वे उसे उफनता हुआ ही छोड़कर चल दीं। माता पुत्रों को फेंककर, पत्नी पतियों की गोद में से निकलकर, बहनें भाइयों को खिलाते छोड़कर उसी ओर को दौड़ने लगीं। श्रीवास कहते जाते थे, प्रभु भावावेश में सुनते जाते थे। दोनों ही बेसुध थे। इस प्रकार श्रीकृष्ण-कथा कहते-कहते ही सम्पूर्ण रात्रि बीत गयी। भगवान भुवनभास्कर भी घर के दूसरी ओर छिपकर इन लीलाओं का आस्वादन करने लगे। सूर्य के प्रकाश को देखकर प्रभु को कुछ बाह्यज्ञान हुआ। उन्होंने प्रेमपूर्वक श्रीवास पण्डित का जोरों से आलिंगन करते हुए कहा- ‘पण्डित जी! आज आपने हमें देवदुर्लभ रस का आस्वादन कराया। आज आपके श्रीमुख से श्रीकृष्ण-लीलाओं के श्रवण से मैं कृतकृत्य हो गया।’ इतना कहकर प्रभु नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिये चले गये। दूसरे दिन प्रभु ने सभी भक्तों के सहित परामर्श किया कि सभी भक्त मिलकर श्रीकृष्ण-लीला का अभिनय करें। स्थान का प्रश्न उठने पर प्रभु ने स्वयं अपने मौसा पं० चन्द्रशेखर आचार्यरत्न का घर बता दिया। सभी भक्तों को वह स्थान बहुत ही अनुकूल प्रतीत हुआ। वह घर भी बड़ा था और वहाँ पर सभी भक्तों की स्त्रियाँ भी बिना किसी संकोच के जा-आ सकती थीं। भक्तों के यह पूछने पर कि कौन-सी लीला होगी और किस-किसको किस-किस पात्र का अभिनय कराना होगा, इसके उत्तर में प्रभु ने कहा- ‘इसका अभी से कोई निश्चय नहीं। बस यही निश्चय है कि लीला होगी और पात्रों के लिये आपस में चुन लो। पात्रों के पाठ का कोई निश्चय नहीं है। उस समय जिसे जिसका भाव आ जाय, वह उसी भाव में अपने विचारों को प्रकट करे। अभी से निश्चय करने पर तो बनावटी लीला हो जायगी। उस समय जैसी भी जिसे स्वाभाविक स्फुरता हो, यह सुनकर सभी भक्त बड़े प्रसन्न हुए। प्रभु के अन्तरंग भक्तों को तो अनुभव होने लगा मानो कल वे प्रत्यक्ष वृंदावन-लीला के दर्शन करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10/29/4