श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी65. जगाई और मधाई की प्रपन्नता
हाथ के जल को जल्दी से फेंकते हुए अत्यंत ही दीनता के साथ कातरस्वर में उन दोनों भाइयों न कहा- ‘प्रभो! हमारा हृदय फट जायगा। भगवन! हम मर जायँगे। हमें ऐसा घोर कर्म करने की आज्ञा अब न प्रदान कीजिये। प्रभो! हम आपकी इतनी कृपा सहन नहीं कर सकते। हे दीनों के दयाल! जिन चरणों में भक्तगण नित्यप्रति भाँति-भाँति के सुगन्धित चंदन और विविध प्रकार के पत्र-पुष्प चढ़ाते हैं, उनमें हमें अपने असंख्यों पापों को चढ़ाने की आज्ञा न दीजिये। संसार हमें धिक्कारेगा कि प्रभु के पावन पादपद्मों में इन पापी पामर प्राणियों ने अपने पाप-पुंजों को अर्पण किया। प्रभो! हम दब जायंगे। यह काम हमसे कभी नहीं होने का।‘ प्रभु ने इन्हें धैर्य बंधाते हुए कहा- 'भाइयो! तुम घबड़ाओं नहीं। तुम्हारे पापों को ग्रहण करके मैं पावन हो जाऊगाँ। मेरा जन्म धारण करना सार्थक हो जायगा। तुमलोग संकोच न करो।' प्रभु की इस बात को सुनकर नित्यानंद जी ने उन दोनों भाइयों से कहा- ‘तुमलोग इतना संकोच मत करो। ये तो जगत को पावन बनाने वाले हैं। पाप इनका क्या बिगाड़ सकते हैं? ये तो त्रिभुवनपापहारी हैं। तुम अपने पापों का संकल्प कर दो।' नित्यानंद जी की बात सुनकर रोते-रोते इन दोनों भाइयों ने हाथ में जल लिया। नित्यानन्द जी ने संकल्प पढ़ा और प्रभु ने दोनों हाथ फैलाकर उन दोनों भाइयों के सम्पूर्ण पापों को ग्रहण कर लिया। अहा! कैसा अपूर्व आदर्श है? दूसरों के पाप ग्रहण करने से ही तो गौरांग पतित पावन कहा सके। उनके पापों का ग्रहण करके प्रभु बोले- ‘अब तुम दोनों निष्पाप हो गये। अब तुम मेरे अत्यन्त प्रिय परम भागवत वैष्णव बन गये। आज से जो कोई तुम्हारे पुराने पापों को स्मरण करके तुम्हारे प्रति घृणा प्रकट करेगा, वह वैष्णवद्रोही समझा जायगा। उसे घोर वैष्णवापराध पातक लगेगा।' यह कहते-कहते प्रभु ने फिर दोनों को गले से लगा लिया। वे भी प्रभु का प्रेमालिंगन पाकर मूर्च्छित होकर जल में गिर पड़े। उस समय प्रभु के अत्यन्त ही अन्तरंग भक्तों को तपाये हुए सुवर्ण के समान रंगवाला प्रभु का शरीर किंचित कृष्णवर्ण का प्रतीत होने लगा। पाप ग्रहण करने से वह काला हो गया। इसके अनन्तर सभी भक्तों ने आनन्द और उल्लास के सहित खूब स्नान किया। मारे प्रेम के सभी भक्त पागल-से हो गये थे। स्नान करते-करते वे आपस मे एक-दूसरे के ऊपर जल उलीचने लगे। इस प्रकार बहुत देर तक सभी गंगा जी के त्रिभुवनपावन पय में प्रसन्नता सहित क्रीड़ा करते रहे। अर्द्धरात्रि से अधिक बीतने पर अपने-अपने घरों को चले गये, किंतु जगाई-मधाई दोनों भाई उस दिन से अपने घर नहीं गये। वे श्रीवास पण्ड़ित ही घर रहने लगे। |