श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी7. चैतन्य-कालीन बंगाल
बंगाल भाव-प्रधान देश है। बंगाली प्रायः हृदय-प्रधान होते हैं, उन्हें ललित कलाओं से बहुत अनुराग है, वे प्रकृतिप्रिय हैं। उनका हृदय प्रकृति के साथ मिला हुआ है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों का उनके हृदय-पटल पर गहरा प्रभाव पड़ता है, वे भावुक होते हैं, इसका प्रमाण उनके रहन-सहन में, खान-पान तथा उत्सव-पर्वों में प्रत्यक्ष मिलता है। बंगला-भाषा का अधिकांश साहित्य भावुकता-प्रधान ही है, उनमें उपन्यास, नाटक, ललितकाव्य आदि विषयों का ही प्राधान्य है। कुछ विशेष श्रेणी के पुरुषों को छोड़कर सर्वसाधारण लोग निष्काम कर्मों से एकदम अनभिज्ञ हैं। वे इस बात को प्रायः समझ ही नहीं सकते कि बिना कामना के भी कर्म हो सकता है। वहाँ जितना भी पूजा-पाठ और धार्मिक कृत्य होता है सभी सकाम भावना से किया जाता है। संन्यास-धर्म का प्रचार बंगदेश में बहुत ही कम है। अब तो वहाँ कुछ-कुछ संन्यास-धर्म का प्रचार होने लगा है, नहीं तो पहले इसका प्रचार नहीं के ही बराबर था। अब भी बंगाल में मधुकरी-भिक्षा की परिपाटी नहीं है। बना-बनाया अन्न वहाँ भिक्षा में कठिनता से मिल सकेगा। अधिकांश बंगाली संन्यासी इधर उत्तर-भारत की ही ओर आकर रहने लगते हैं। अब भी उत्तर-भारत में बहुत-से सुयोग त्यागी और विरक्त बगाली महात्मा निवास कर रहे हैं। बंगदेश शक्ति-उपासक है। शक्ति की उपासना बिना रजोगुण के हो नहीं सकती। कुछ शाक्त भक्त सात्त्विक-पद्धति से फल-फूलों का ही बलिदान देकर शक्ति-उपासना करते हैं, किन्तु ऐसे भक्तों की संख्या उँगलियों पर ही गिनी जा सकती है, अधिकांश तो गरम-गरम रक्त द्वारा ही कालीमाई को प्रसन्न करने वाले भक्त हैं। प्रतिवर्ष दोनों नवरात्रों में करोड़ों जीवों का संहार देवी के नाम से किया जाता होगा। भारतवर्ष भर में बंगाल-प्रान्त में ही खूब धूमधाम से नवरात्र मनाया जाता है, जिनमें लाखों बकरे कालीमाई के ऊपर चढ़ाये जाते हें। बंगालियों में निरामिषभोजी भी बहुत ही कम मिलेंगे। यदि बहुत-से मांस न भी खाते होंगे, तो मछली के बिना तो वे रह ही नहीं सकते। मछली के मांस की वे मांस में गणना नहीं करते। यहाँ तक कि बहुत-से वैष्णव भी मांस न खाते हुए भी मछली का सेवन करते हैं। केवल विधवा स्त्रियों को एकादशी के दिन मछली खाना मना है या कोई-कोई वैष्णव या ऊँची श्रेणी के भट्टाचार्य बचे हुए हैं, नहीं तो मछली के बिना बंगाली रह ही नहीं सकते। जिस बंगाली को स्नान के पूर्व शरीर में मलने को तेल नहीं मिला और भोजन के समय मछली नहीं मिली उसका जीवन व्यर्थ ही समझा जाता है, वह अपने समाज में या तो अत्यन्त ही दीन-हीन होगा या कोई परम योगी। सर्वसाधारण लोगों के लिये ये दोनों वस्तुएँ अत्यन्त ही आवश्यक समझी जाती हैं। जिस समय की हम बातें कह रहे हैं, उस समय बंगाल की बड़ी ही बुरी दशा थी। |