श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी60. भगवद्भाव की समाप्ति
भक्तोंके पदाघात से पृथ्वी हिलने लगी, वायु स्थिर-सी प्रतीत होने लगी। चारों ओर प्रसन्नता-ही-प्रसन्नता छा गयी। प्रेम में उन्मत्त होकर कोई नृत्य करने लगा, कोई आनंद के वेग को न सह सकने के कारण मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। कोई शंख बजाने लगा, कोई शीतल जल लेकर प्रभु के श्रीमुख में धीरे-धीरे डालने लगा। इस प्रकार श्रीवास जी का सम्पूर्ण घर उस समय आनंद का तरंगित सागर ही बन गया। जिसमें भक्तों की प्रसन्नता की हिलोरें उठ-उठकर दिशाओं को गुँजाती हुई भीषण शब्द कर रही थीं। थोड़ी ही देर के अनन्तर प्रभु आँखें मलते हुए निद्रा से जागे हुए मनुष्य की भाँति उठे और अपने चारों ओर भक्तों को एकचित और बहुत-सी अभिषेक की सामग्रियो को पड़ी हुई देखकर आश्चर्य के साथ पूछने लगे-‘हैं, यह क्या है? हम कहाँ आ गये? आप सब लोग यहाँ क्यों एकत्रित हैं? आप सब लोग इस प्रकार विचित्र भाव से यहाँ क्यों बैठे हुए हैं?’ प्रभु के इस प्रश्नों को सुनकर भक्त एक-दूसरे की ओर देखकर मुसकराने लगे। प्रभु के इन प्रश्नों का किसी ने भी कुछ उत्तर नहीं दिया। इसपर प्रभु ने श्रीवास पण्डित को संबोधन करके पूछा- ‘पण्डित जी! बताइये न, असली बात क्या है? हमसे कोई चंचलता तो नहीं हो गयी, अचेतनावस्था में हमसे कोई अपराध तो नहीं बन गया? मामला क्या है, ठीक-ठीक बताते क्यों नहीं? अपनी हंसी को रोकते हुए श्रीवास पण्डित कहने लगे- ‘अब हमें बहकाइये नहीं। बहुत बनने की चेष्टा न कीजिये। अब यहाँ कोई बहकने वाला नहीं है।‘ प्रभु ने दुगुना आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा- ‘कैसा बहकाना, बताते क्यों नहीं? बात क्या है?’ इस पर बात को टालते हुए श्रीवास जी ने कहा-‘कुछ नहीं, आप संकीर्तन में अचेत हो गये थे, इसलिये आपको चैतन्य लाभ कराने के निमित्त सभी भक्त मिलकर कीर्तन कर रहे थे।‘ इस बात को सुनकर कुछ लज्जित होते हुए प्रभु ने कहा- ‘अच्छा, तो ठीक है। आप लोगों को हमारे कारण बड़ा कष्ट हुआ। आप सभी लोग हमें क्षमा करें। बहुत समय बीत गया। अब चलकर स्नान-संध्या-वन्दन करना चाहिये। मालूम होता है अभी प्रात:काल संध्या भी नहीं हुई।’ यह सुनकर सभी भक्त स्नान-संध्या के निमित्त गंगा जी की ओर चले गये। |