श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी6. चैतन्य-कालीन भारत
इन सबमें महात्मा कबीर बहुत ही प्रसिद्ध और परम उच्च स्थिति के महापुरुष हुए। इनके उच्च तत्त्वों का सम्पूर्ण भारतवर्ष के ऊपर समानभाव से प्रभाव पड़ा। ये महापुरुष परम ज्ञानी, आदर्श भक्त, अद्वितीय अनुरागी और सबसे बड़े निर्भीक थे। इस हेतु से प्रायः उच्च जाति के लोग डाह के कारण इनके द्वेषी बन गये। महात्मा रैदास, नामदेव जी आदि परमभक्त भी उसी काल में उत्पन्न हुए। इन सभी ने रूपान्तर-भेद से वैष्णव धर्म का ही प्रचार किया। कबीर-पंथ वैष्णव-धर्म का ही विकृत और रूपान्तरमात्र है। इधर उसी समय पंजाब में श्रीगुरु नानकदेव जी भी हुए, ये कबीरदास जी के समकालीन ही थे, इन्होंने भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में बारह वर्षों तक भ्रमण तथा तीर्थयात्रा करके पंजाब के करतारपुर में ही आकर रहने लगे। इनके उपदेशों का लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। इसलिये लाखों मनुष्य इनके उपदेशों को सुन-सुन इनके शिष्य अथवा ‘सिक्ख’ बन गये, आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह जी ने इन्हीं सबका एक ‘सिक्खसंघ’ ही बना लिया। इनके बड़े पुत्र श्री चन्द जी भी एक बड़े त्यागी, तेजस्वी और प्रभावशाली महापुरुष थे, उन्होंने विरक्तों को ही उपदेश दिया। इसलिये उनके अनुयायी अपने को ‘उदासी’ कहने लगे। उदासी एक प्रकार के संन्यासी ही होते हैं, असल में तो यह भी वैष्णव-धर्म का ही रूपान्तर है, केवल ये लोग शिखा-सूत्र नहीं रखते। वैसे उदासी-सम्प्रदाय में भगवत -भक्ति ही मुख्य समझी जाती थी। अब तो उदासी-सम्प्रदाय भी विचित्र ही बन गया है। इधर दक्षिण में महात्मा समर्थ गुरु रामदास जी ने भी राम-भक्ति का प्रचार किया। उनके प्रधान शिष्य छत्रपति महाराज शिवाजी केवल राज्यलोलुप लड़ाकू शूरवीर ही नहीं थे, वे परम भागवत वैष्णव थे, उनके युद्ध का प्रधान उद्देश्य होता था। हिन्दू-धर्म-रक्षण और गौ-ब्राह्मणों का प्रतिपालन। इनके द्वारा महाराष्ट्र में भजन-कीर्तन और भगवत-भक्ति का खूब प्रचार हुआ। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त श्रीतुकाराम जी महाराज भी इसी समय उत्पन्न हुए और उन्होंने अपनी अद्भुत भगवत-भक्ति के द्वारा सम्पूर्ण महाराष्ट्र देश को पावन कर दिया। ये विट्ठलनाथ जी के प्रेम में विभोर होकर स्वयं पद गा-गाकर नृत्य करते और स्वयं पदों की भी रचना करते थे। इनके भक्तिभाव से प्रसन्न होकर साक्षात विट्ठलनाथ जी ने इन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और वे सदा इनके साथ ही रहते थे। ये सशरीर वैकुण्ठ को चले गये। इनके द्वारा मराठी भाषा का ओर सम्पूर्ण महाराष्ट्र देश का बड़ा कल्याण हुआ। इधर काशी में भगवान श्रीवल्लभाचार्य जी भी उस समय विराजमान थे। काशी छोड़कर उन्होंने व्रजमण्डल का परम प्रसिद्ध पुण्यनगरी गोकुल पुरी में अपना निवास-स्थान बनाया। शुद्धद्वैत-सम्प्रदाय के यही प्रधान आचार्य माने जाते हैं, ये श्री बालकृष्ण के उपासक थे। इनके द्वारा देश के विभिन्न स्थानों में श्रीकृष्ण 34 भक्ति का खूब ही प्रचार हुआ। इनके शिष्य अधिकांश धनी ही पुरुष थे। गुजरात, काठियावाड़ की ओर इनके सम्प्रदाय का अत्यधिक प्रचार हुआ। इनके सात पुत्र थे, उन सभी ने वैष्णव-धर्म का खूब प्रचार किया। इसी समय बंगाल में श्री चैतन्यमहाप्रभु का प्राकट्य हुआ। चैतन्य के पूर्व बंगाल की क्या दशा थी और चैतन्यदेव के द्वारा उसमें किस प्रकर परिवर्तन हुआ, इन सभी बातों का परिचय पाठकों को अगले अध्यायों में लग जायगा। |